धर्म

ओशो : साधना

मैं जानता हूं,मेरे दो-तीन सन्यासी उनके पास जाते हैं। वहीं उनके खास शिष्य हैं दो-तीन संन्यासी। वे भी ऐसे संन्यासी हैं,जिनकी कोई आन्तरिक साधना नहीं है। जो यहां आते भी हैं तो बस आने-जाने के लिए। और उनकी तकलीफ यह है कि वे चाहते हैं मेरे साथ उनका विशेष संबंध हो। विशेष संबंध का मतलब? -जब वे आएं आधी रात आंए तो मुझ से मिल सकें,जिस समय आएं,उस समय मिल सके,मुझे अपने घर खाने पर बुला सके। चूंकि यह यहां संभव नहीं है,उन्हें यू. जी.कष्णमुर्ति जमते हैं। यू.जी.कृष्णमुर्ति उनके घर जाते हैं,उनके पास बैठते हैं,उनका खाना खाते हैं,उनके साथ कार में यात्रा करते है। वे जमते हैं। उनके अहंकार की तृप्ति यहां नहीं हो पाती हैं, वहां अंहकार की तृप्ति हो रही है। उन्होंने समझा ही नहीं है कुछ अभी। साधना तो की नहीं हैं,अभी वे यह कैसे समझेंगे कि साधना व्यर्थ हैं? पार्ट टाइम नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।

साधना निश्चित एक दिन व्यर्थ हो जाती है,मगर सदा व्यर्थ नहीं हैं। एक दिन व्यर्थ होती है-होनी ही चाहिए। रास्ता एक दिन हो ही जाना चाहिए जब मंजिल आ जाये। सीढ़ी को पकड़ कर थोड़े ही बैठे रहोगे। सब साधना सीढ़ी सब विधियां उपाय हैं। एक-न-एक दिन उनको छोड़ ही देना हैं। लेकिन सावधान। किसी की बातचीत में आकर,सीढ़ी को मंजिल पर पहुंचने के पहले मत छोड़ देना। छोडऩा तो जरूर है। मैं भी कहता हूं,निरंतर कहता हूं: छोडऩा है। लेकिन मैं दो बातें कहता हूं,पकडऩा है इतना कि तुम आखिरी सोपन तक पहुंच जाओ,फिर छोडऩा है।
पूछा है तुमने कि यू.जी.कृष्णमुर्ति समझाते हैं कि समस्त साधनाएं-योग,ध्यान,संन्यास,गुरू-शिष्य संबंध,आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संभ्र्रग हैं,मन के खेल मात्र है। जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
फिर किसको समझाते हैं? समझाना संभ्रग नहीं है? और समझाना ही तो गुरू और शिष्य का संबंध है और है क्या? जिनको समझा रहे हैं वे कौन है? वे कृष्णमुर्ति के गुरू है या शिष्य? जिनको समझा रहे हैं वे क्यों समझा रहे हैं उनको? उन्हें कुछ पता नहीं है ,जो कुछ कृष्णमुर्ति को पता है। यही तो फर्क है।
गुरू और शिष्य में संबंध क्या है? कोई जानता है,कोई जानता है। जो जनता है,वह अपने जानने को न जानने वाले को सौंप रहा है। सत्संग का और क्या अर्थ होता है?-जानने वाले के पास बैठना। जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
अगर यह बात सच है,तो समझना बंद कर देना चाहिए,क्योंकि समझाने में क्या सार है? सब मन का ही खेल है। समझाने में शब्द ही होंगे। अगर योग मन का खेल हैं,ध्यान मन का खेल है,साधना मन का खेल है- तो जो तुम समझा रहे हो,वह मन का खेल नहीं है?
ध्यान से तो शून्य में उतरेगा,शब्दों से तो सिर्फ पांडित्य बढ़ेगा। कृष्णमुर्ति जो सीख लिए हैं-कृषमुर्ति को सुन-सुन कर-वही ये जो दो-तीन उनके आगे पीछे घूमने वाले लोग हैं,ये उनसे सीख लेंगे और दोहराने लगेंगे। और उन्होंने दोहराना शुरू कर दिया है।
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