धर्म

ओशो : ईश्वर धोखा नहीं खाता

ध्यान रखना,आमतौर से लोग.. कोई कहता है कि मुझे ईश्वर में अश्रद्धा है। वह गलत शब्द का उपयोग कर रहा है। श्रद्धा रही हो तो ही अश्रद्धा हो सकती है। और जिसको श्रद्धा रही है,कैसे अश्रद्धा होगी? श्रद्धा के बाद ही अश्रद्धा हो सकती है। किसी को मित्र बनाओ, तो ही शत्रुता हो सकती है। नहीं तो कैसे शत्रुता होगी? विधेय पहले आता है नकार पीछे। नकार छाया है। किसी से विवाह करो तो तालाक हो सकता है। तुम कहने लगो की किसी दूसरे की स्त्री को देखकर कि इससे मेरा तालाक हो गया-और विवाह कभी हुआ ही नहीं था- तो तुम्हें लोग पागल समझेंगे। जो कहता है मुझे ईश्वर पर श्रद्धा नहीं है। अश्रद्धा तो ही नहीं सकती। अश्रद्धा तो तब होती है, जब श्रद्धा की जाए और श्रद्धा व्यर्थ जाए। और अनुभव से पाया जाये कि श्रद्धा काम की नहीं थी। नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
मगर ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं- पूरे मनुष्य-जाति इतिहास में नहीं हुआ है। जिसने श्रद्धा की उसकी श्रद्धा और बढ़ी। अश्रद्धा कभी आई नहीं। तुम श्रद्धा के अभाव को अश्रद्धा कह रहे हो, तो ठीक शब्द का उपयोग नहीं कर रहे हो। अश्रद्धा में श्रद्धा का निषेध है,अभाव नहीं है। इनकार है,विरोध है,आक्रमण है, हिंसा है। आदमी इतना ही कह सकता है कि अभी श्रद्धा नहीं है। यह बात ठीक है। इसमें अश्रद्धा का सवाल ही नहीं उठ रहा है। मैं जानता ही नहीं हूं,अश्रद्धा कैसे करूं? ईश्वर है ही नहीं मेरे लिए अभी,तो मैं अश्रद्धा कैसे करूं? अभी मैंने प्रेम ही नहीं किया तो घृणा कैसे करूं? जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
और जिसने प्रेम किया, कैसे घृणा करेगा? जिसने श्रद्धा की,कैसे अश्रद्धा करेगा? जिसने श्रद्धा की,कैसे अश्रद्धा करेगा? हां अगर श्रद्धा की और अश्रद्धा कर ले, तो उसका एक ही अर्थ होता है कि श्रद्धा कहीं न कहीं झूठी थीं थोथी थी, ऊपरी थी,वस्तुत: नहीं थी।
अब तुम कहते हो अनेको के मन में साधना के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है। साधना कोई करना नहीं चाहता। साधन कठोर है। साधना कठोर है। साधना हिम्मतवरों का काम है, नपुंसकों का नहीं। साधना कोई करना नहीं चाहता। लोग सुविधा चाहते है-साधना नहीं। लोग चाहते है: कोई कह दे, साधना की जरुरत नहीं हैं।

इसलिए तो सदियों-सदियों में आदमी ने बड़े नपुंसक उपाय खोज लिए हैं। किसी ने कह दिया कि मरते वक्त राम-राम का जप कर लो कि बस पहुंच जाओगे। जिंदगी भर क्या करना है। कहानियां गढ़ ली है कि अजामिल मर रहा था। अपने अपने बेटे को पुकारा। बेटे का नाम नारायण था। संयोग की बात कि नारायाण था। उसने कहा कि नारायण,तू कहां है? और ऊपर के नाराण को धोखा हो गया। हद हो गई । कहां के बुद्ध नारायण को ऊपर बिठा रखा है, इतनी भी जिनमें अक्ल नहीं है कि वह किसको बुला रहा है। वह अपने बेटे को बुला रहा है। और जिन्दगी भर का हत्यारा,बेईमान और चोर आदमी। वह बुला ही इसलिए रहा होगा कि चोरी का धन कहां गढ़ा दिया है,किस-किसकी और हत्या करनी है,कौन-कौन सा बदला मैं नही ले पाया हूं ,तू बेटा ले लेना, अपनी पंरपरा टूट न जाए। यह वसीयत तुझे दे जाता हूं। बुला रहा होगा किसी गलत काम के लिए ही। और बेटे को बुला रहा है, और ऊपर से नारायण धोखे में आ गए। और अजामिल मरा और स्वर्ग चला गया।
जिन्होंने यह कहानी गढ़ी है, हद के बेईमान रहे होंगे। मगर ये जंचती है कहानियां लोगो को। लोग कहते हैं कि अजामिल को पार कर दिया तो मुझे पार न करोगे? जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
तुम कुछ करना नहीं चाहते। फिर हालातें ऐसी आ जाती हैं कि मौत का पता तो होता नहीं,कब मरोगे,कब मौत आ जाएगी,कोई खबर तो देती नहीं। मौत तो अतिथि हैं,बिना तिथि बताए आती है। एकदम आ जाती है। मर गए, नारायण को भी न बुला पाए। और अब तो बेटों के नाम भी नारायण नहीं- पिंकी इत्यादि। अब तुम बुलाओगे भी कि हे पिंकी,कहां हो? तो परमात्मा को कोई धोखा भी नहीं होगा। कि हे डब्लू कहां हो?… मौत आई-और तुम गए।
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