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सत्यार्थप्रकाश के अंश – 28

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तीन अवस्था-एक जागृत,दूसरी स्वप्र,और तीसरी सुषुप्ति अवस्था कहाती है।
तीन शरीर है-एक स्थूल जो यह दीखता है। दूसरा पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां पांच सूक्ष्म भूत और मन तथा बुद्धि इन सत्तरह तत्वों का समुदाय सूक्ष्मशरीर कहाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्ममरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इस के दो भेद हैं- एक भौतिक अर्थात् जो सूक्ष्म भूतों के अंशो से बना है। दूसरा स्वाभाविक जो जीव के स्वाभाविक गुण रूप हैं। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति मे भी रहता है। इसी से जीव मुक्ति में सुख भोगता है। तीसरा कारण जिस में सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है। चौथा तुरीय शरीर वह कहता है जिस में समाधि से परमात्मा के आनन्दस्वरूप में मग्र जीव होते हैं। इसी समाधि संस्कारजन्य शुद्ध शरीर का पराक्रम मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है।
इन सब कोष,अवस्थाओं से जीव पृथक् हें,क्योंकि यह सब को विदित है कि अवस्थाओं से जीव पृथक् है। क्योंकि सब मृत्यु होता है, तब सब कोई कहते है कि जीव निकल गया यही जीव सब का प्ररेक,सब मृत्यु होता है तक कोई कहते है कि जीव निकल गया यही जीव सब का प्ररेक,सब का धत्र्ता,साक्षीकत्र्ता,भोक्ता कहाता है। जो कोई ऐसा कहे कि जीव कत्र्ता भोक्ता नहीं तो उस को जानी कि वह अज्ञानी,अविवेकी है। क्योंकि बिना जीव के जो ये सब जड़ पदार्थ हैं इन को सुख-दु:ख का भोग वा पाप पुण्य कृर्तत्व कभी नहीं हो सकता। हां,इन के सम्बन्ध से जीव पाप पुण्यों का कर्ता और सुखों का भेक्ता है।
जब इन्द्रियों अर्थो में मन इन्द्रियों और आत्मा मन के साथ सयुक्त होकर प्राणों को प्ररेणा करके अच्छे वा बुरे कर्मो में लगाता है तभी वह बहिर्मुख हो जाता है। उसी समय भीतर से आनन्द,उत्साह ,निर्भयता और बुरे कर्मो में भय ,शंका लज्जा उत्पन्न होती है। वह अन्तयार्मी परमात्मा की शिक्षा है। जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्तत्ता है वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है। और जो विपरीत वत्तर्ता है वह बन्धजन्य दु:ख भोगता है।
दूसरा साधन वैराग्य:- अर्थात् जो विवेक से सत्यासत्य को जाना हो उसमें से सत्याचरण का ग्रहण और असत्याचरण का त्याग करना विवेक है-जो पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थो के गुण,कर्म,स्वभाव से जानकर उस की आज्ञा पालन और उपासना में तत्पर होना, उस से विरूद्ध न चलना,सृष्टि से उपकार लेना विवेक कहाता है।
तत्पशचात् तीसरा साधन- षट्क सम्पत्ति अर्थात् छ: प्रकार के कर्म करना- एक शम जिस से अपने आत्मा और अन्त:करण को अधर्माचरण से हटाकर धर्माचरण में प्रवृत्त रखना। दूसरा दम जिस में श्रोत्रादि इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचरण बुरे कर्मो से हटा कर जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मो में प्रवृत्त रखना। तीसरा उपरति जिस से दुष्ट कर्म करने वाले पुरूषों से सदा दूर रहना। चौथा तितिक्षा चाहे निन्दा ,स्तुति,हानि,लाभ कितना ही क्यों न हो परन्तु हर्ष शोक को छोड़ मुक्ति साधनों में सदा लगे रहना। पांचवा श्रद्धा जो वेदादि सत्य शास्त्र और इन के बोध से पूर्ण आप्त विद्वान् सत्योपदेष्टा महाशयों के वचनों पर विश्वास करना। छठा समाधान चित्त की एकाग्रता ये छ: मिलकर एक साधन तीसरा कहाता है।
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