धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—94

परब्रह्म परमात्मा के सिवाय किसी अन्य को नहीं मानता उसको अनन्य भक्त कहते हैं गीता में इसे अनन्य भक्ति के नाम से भी पुकारा है तथा परा प्रेमलक्षणा भक्ति भी कहा है। जिस प्रकार पतिव्रता अपने पति को ही सर्वेसर्वा मानकर संसार में इतने महान कार्य कर देती है शायद वह कार्य ब्रह्मा, विष्णु महेश भी नहीं कर सकते। यदि पतिव्रत धर्म में इतनी शक्ति है, तो यदि भक्त अपनी आत्मा का पित परमात्मा को मानकर उसको अपने आप को समर्पित कर दें, तो उसकी शक्ति का अनुमान लगाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव है।

जीवन में सुख और दु:ख आते ही रहते है,परन्तु पतिव्रता अपने धर्म पर कायम रहती है,दु:खो को सहाती हुई,शान्तभाव से गृहस्थाश्रम की व्यवस्था को सुचारूप से निभती है। दुख जीवन को निखारने के लिए है। जैसे अग्रि में तपकर सोना कुन्दन बन जाता है,उसी प्रकार पतिव्रत धसर्म पर अडिग़ रहने वाली पतिव्रता नारी का जीवन दु:ख,कष्ट और संकटों में दूसरों के लिए उदाहरण बन जाता है और उसकी जीवन गाथा इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णिम अक्षरों से बन जाता है और उसकी जीवन गाथा इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णिम अक्षरों से लिखी है।

चंचल मनवाली नारी का परलोक भी बिगड़ता है और इस लोक में भी कोई स्थान नहीं है। ठीक इसी प्रकार अपने धर्म पर जो अडिग़ नहीं रहता उसका कल्याण कठिन है। अनन्य भक्ति करनेवाला ही अपने इष्ट को पा सकता है।

एक साधे सब सधे,सब साधे सब जाये। वाली कहावत के अनुसार एक परब्रह्म परमात्मा की भक्ति अनन्य भाव से, निष्काम भाव से करने से निश्चित ही कल्याण होता है । भक्त सूरदास ,मीरा,राधा,चैतन्य महाप्रभु ,स्वामी प्राणनाथजी,निजानन्द स्वामी,तुलसीदास जी,शबरी आदि अनन्य भक्ति करने वालों में से है,जिनकी जीवन घटनाएं हमारे सामने आदर्श पेश करती हैं। इन्होंने एक को अपना माना और अपना सर्वस्व उस फर न्यौछावर कर दिया। उसे भी आना पड़ा। आना पड़ा उसे दर्शन देने के लिए। इसीप्रकार प्यारे सुंदरसाथ जी, अपने इष्ट पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करके उसे पाने का निरंतर प्रयत्न कीजिए।

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