धर्म

स्वामी राजदास : गुरु और शिष्य

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एक बार महात्मा बुद्ध उपदेश दे रहे थे, ‘देश में अकाल पड़ा है। लोग अन्न एवं वस्त्र के लिए तरस रहे हैं। उनकी सहायता करना हर मनुष्य का धर्म है। आप लोगों के शरीर पर जो वस्त्र हैं, उन्हें दान में दे दें।’ यह सुनकर तो कुछ लोग तुरंत सभा से उठकर चले गए तो कुछ आपस में बात करने लगे, ‘यदि वस्त्र इन्हें दे दें, तो हम क्या पहनेंगे?’ उपदेश के बाद सभी श्रोता चले गए किंतु निरंजन बैठा रहा। वह सोचने लगा, ‘मेरे शरीर पर एक वस्त्र है। अगर मैं अपने वस्त्र दे दूंगा तो मुझे नग्न होना पड़ेगा।’
फिर सोचा- मनुष्य बिना वस्त्र के पैदा होता है और बिना वस्त्र के ही चला जाता है। साधु-संन्यासी भी बिना वस्त्र के रहते हैं। यह सोचकर निरंजन ने अपनी धोती दे दी। बुद्ध ने उसे आशीर्वाद दिया। निरंजन अपने घर की ओर चल पड़ा। वह खुशी से चिल्ला कर कह रहा था, ‘मैंने अपने आधे मन को जीत लिया।’ उसी वक्त उसी ओर से महाराज प्रसेनजित चले आ रहे थे।

निरंजन की बात सुनकर उन्होंने उसे बुलाया और पूछा, ‘तुम्हारी बात का क्या अर्थ है?’ निरंजन ने उत्तर दिया, ‘महाराज! महात्मा बु़द्ध दुखियों के लिए दान में वस्त्र मांग रहे थे। यह सुनकर मेरे एक मन ने कहा कि शरीर पर पड़ी एकमात्र धोती दान में दे दो, परंतु दूसरे मन ने कहा कि यदि यह भी दे दोगे तो पहनोगे क्या? आखिर दान देने वाले मन की विजय हुई। मैंने धोती दान में दे दी। अब मुझे गरीबों की सेवा के सिवा कुछ नहीं चाहिए।’

यह सुनकर राजा प्रसेनजित ने अपना राजकीय परिधान उतारकर निरंजन को दे दिया। मगर राजा का परिधान भी निरंजन को अपने लिए व्यर्थ लगा। उसने राजा के शाही परिधान को भी महात्मा बुद्ध के चरणों में डाल दिया। बुद्ध ने निरंजन को सीने से लगाते हुए कहा, ‘जो दूसरों के लिए अपना सब कुछ दे देता है, उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।’
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, ये होता है गुरु के प्रति शिष्य का समर्पण। इसी भाव के चलते गुरु के माध्यम से भगवान की प्राप्ति होती है।
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Jeewan Aadhar Editor Desk