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ओशो : तुम अपने को बचा लो तो सबको बचा लिया

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यह संसार कांट की बारी..। यह संसार तो कांटों की बाड़ी है।… अयंझि अरूझि के मरने दे। अब जो मरना ही चाहते है इन कांटों में उलझकर,उनको मरने दो। उनको मर-मर कर सीखने दो। उनको कांटों में चुभ-चुभ कर ही याद आयेगी,और कोई शायद उपाय नहीं है। शायद कांटों में चुभ-चुभ कर ही उनको कभी बोध होगा कि हम क्या कर रहे हैं, तो शायद फूलों की तालाश करें। तुम उन्हें चाहकर भी कंाटों में जाने से रोक नहीं सकते। तुम रोकोगे तो वु उत्सुक हो जायेंगे। तुम बाधा डालोगे तो उनको चुनौती मिलेगी। तुम उन्हें जाने दो। जिसे जो करना है,उसे करने दो। जिसे दुखी होना है वह दुखी होगा। वह उपाय खोज ही लेगा। तुम किसी को सुखी नहीं कर सकते हो, यह स्मरण रखना। और भूलकर इस भं्राति में मत पडऩा कि किसी को सुखी करने लगो। अपने को ही सुखी कर लो तो पर्याप्त है। और तुम्हारे भीतर सुख हो तो तुमसे जरूर एक सुवास उठेगी। वह सुवास औरो के नासापुटों में भी जायेगी और शायद उनको भी संगध दे और शायद सुंगध के स्त्रोत को खोजने की सुधि दे।
और यह भी खयाल रखना कि तुम हाथी की चाल चलोगे तो हाथी की चाल है। संन्यास यानी हाथी की चाल। यह तो चांद-तारों की चाल है। यह तो मस्ती की चाल है। यह तो मदमस्त जो है उसकी चाल है।
तो खयाल रखना,दूसरे भौंकेगे भी। उनको भौंकने देना। हंसेगे,विरोध करेंगे, उपेक्षा करेंगे- उनको करने देना। उनकी चिंता मत लेना, लौअकर भी मत देखना।
कठोर लगते हैं ये वचन,लेकिन बड़े सच है। हमें लगता है ऐसा कि नहीं,सद्गुरू को ऐसा नहीं कहना चाहिये। लेकिन सद्गुरू को क्या कहना चाहिये,वही सद्गुरू कहता है। कठोर तो कठोर है।
सर्जरी है सद्गुरू के वचनों में। काटता है। जो अंग व्यर्थ हैं, काट कर फेंक देना है। यह संसार भादों की नदियां..। अब जिसको इसी में डूबना है,मरना है… पुकार दो,कह दो, मगर उसी में मत उलझे रह जाना। तुम यहीं मत बैठे रहना कि कोई डूबे तो हमें उतर कर उसको बचाना है। तुम अपने को बचा लो तो सबको बचा लिया।
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