धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से —97

जब युधिष्ठिर ने द्रौपदी को भी दाव पर लगा दिया और हार गए तो द्रौपदी को केश पकड़ कर घसीटते हुए राज सभा में ले आए। द्रौपदी पतिव्रता थी उसने प्रतिज्ञा की,और कहा, हे दुष्ट दु:शासन। तुमने मेरे केशो को छुआ है,इसलिए खुले रहेंगे,मैं इनको बांधूगी नहीं। दुर्योधन ने कहा, अरे दु:शासन। इसकी बातों पर ध्यान मत दो और इसकी साड़ी खींच लो और नग्र करके मेरी जंघा पर इसको बिठा दो। भीम ने अपनी गदा उठाई और यह प्रतिज्ञा की,इस गदा से तेरी दाई जांघा तोडक़र तुम्हें यमपुरी पहुँचाऊँगा दुर्योधन। दु:शासन ने द्रौपदी की साड़ी और खींचना प्रारम्भ किया। सभी पाण्डव,द्रोणाचार्य,कृपाचार्य,भीष्म पितामह जैसे शूरवीर नीचे मुँह करके बैठे है,कोई कुछ नहीं बोल रहा। द्रौपदी ने सभी की और सहायता के लिए देखा। लेकिन कोई सहायक न पाकर परमात्मा को पुकारने लगी।

द्रौपदी की आंखो से अविरल आंसुओं की धारा बह रही है और कहती है जिसका कोई नहीं होता,जो दीन हैं,असहाय है,कमजोर है, अनाथ है, उनके सहायक स्वयं भगवान् ही होते हैं। साड़ी सिर से खिसककर आंचल तब,सीने तक आ गई। एक हाथ से साड़ी का पल्लु खींचकर पकडु रखा है ताकि अरगे खुलने न पाये और एक हाथ ऊपर करके भगवान् श्रीकृष्ण को पुकार रही है और प्रार्थना कर रही है।

हे द्वारिकानाथ! मुझ निरपराध अबला के साथ कैसा अत्याचार हो रहा है? देखो न स्वामी। सभा में सब शीश नीचे करके बड़े बड़े यौद्धा बैठे हुए है,कोई भी धर्म और न्याय की बात नहीं कर रहा है। हे नाथ अब लाज बचाना मेसे बस की बात नहीं। हे घनश्याम आओ मेरी रक्षा करो श्याम। मेरी लाज बचाओ करूणा भरी पुकार सुनकर करूणासागर आए,हाथ से साड़ी निकालना प्रारम्भ किया,साड़ी में साड़ी निकलती जा रही है,दु:शासन साड़ी खींचता खींचता थक गया,परन्तु साड़ी का अन्तिम छोर नहीं आया, यह देखकर किसी ने कहा,साड़ी बीच नारी है या नारी बीच साड़ी।

अब यह प्रश्र उठता है कि दौपदी ने ऐसा कौन सा कर्म किया था जिसका परिणाम इतना दु:खदायी उसको भुगतना पड़ा। भरी सभा में नग्र करने की कोशिश की गई, पति भी रक्षा नहीं कर सके? भगवान स्वयं आकर साड़ी बड़ाई,द्रौददी की लाज रखी। द्रौपदी द्वारा किये गये कार्य आप अपने शुभफल के रूप में प्राप्त हुए हैं। वह कौन-सा शुभ कार्य था? द्वारिकापुरी की रचना हुई। रूक्मणि सत्यसभा आदि से श्रीकृष्ण भगवान की शादी हुई।

एक बार अर्जुन दौपदी को लेकर द्वारिकापुरी आये। अर्जुन श्रीकृष्ण के मित्र भी हैं,भक्त भी हैं और बुआ के बेटे भाई भी है। शाम के समय सब मिलकर बाग में हास्य विनोद करते हुए टहल रहे थे। बगीचे में एक सुन्दर फुल गुलाब का था,जिसमें 9 रंग थे और वह खिला हुआ था,द्रौपदी उसको टकटकी बांधे देख रही थी। श्रीकृष्ण समझ गए की यह फुल द्रौपदी को बहुत पंसद है,तोडऩे के लिए हाथ बढ़ाया। फुल तो टूट गया लेकिन,हाथ में नुकीला कांटा चुभ गया,अंगुली से खून बहने लगा। सभी पट्टी तथा दवा लाने के लिए इधर उधर दौड़े, परन्तु दौपदी ने आव देखा न ताव,फौरन अपनी साड़ी से एक पट्टी फाड़ी और अपने आंसु रूपी दवा में भिागोई और शीघ्रातिशीघ्र श्रीकृष्ण की अंगुली पर बांध दी। श्रीकृष्ण ने उसी क्षण यह सोच लिया कि इस पट्टी का उपकार मुझे किसी दिन चुकाना है।

आज वह दिन आ गया और परमात्मा ने साड़ी को इतना बढ़ाया कि साडिय़ों का ढेर लग गया, लाज रख ली एक नारी की उस परमात्मा ने।

प्रेमी भक्त सज्जनों छोटा सा पुण्य कार्य भी महान् फलदायी बन जाता है। नेकी करो और कुंए में डालो। नेकी करके, उसे याद मत रखो, भूल जाओ और यदि कोई अपने हाथों पाप कार्य हो जाए तो उसको कभी मत भूलो,क्षण प्रतिक्षण उसको याद करो। प्राश्चित करते रहो ताकि भविष्य में कभी दोबारा पाप न हो।

जैसे आप बैंक में जो राशि जमा कराकर पांच साल तक उसे वापिस नहीं निकालते हो वह राशि ब्याज सहित आपको दुगुनी मिल जाती है। उसी प्रकार परमात्मा की सरकार भी आप द्वारा किए गए पुण्यों को बड़ाकर अधिक शुभ फल के रूप में वापिस लौटा देती है। इसलिए पाप कार्य से बचो, दूसरों को भी बचाओ। शुभ कार्य स्वयं भी करो और दूसरों को भी प्रेरित करो।

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