धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश—36

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जो पशु मार कर अग्रि में होम करने से पशु स्वर्ग को जाता है तो यजमान अपने पिता आदि को मार के स्वर्ग में क्यों नहीं भेजते। जो मरे हुए मनुष्यों की तृप्ति के लिए श्राद्ध और तप्र्पण होता है तो विदेश में जाने वाले मनुष्य को मार्ग का खर्च खाने पीने के लिये बांधना व्यर्थ है। क्योंकि जब तक मृतक को श्राद्ध,तर्पण से अन्न, जल पहुंचाता है तो जीते हुए परदेश में रहने वाले मार्ग में चलनेहारों को घर में रसोई बनी हुई का पत्तल परोस,लोटा भर के उस के नाम पर रखने से क्यों नहीं पहुंचता? जो जीते हुए दूर देश अथवा दश हाथ पर दूर बैठे हुए को दिया हुआ नहीं पहुंचता तो मरे हुए के पास किसी प्रकार नहीं पहुंच सकता। उन से ऐसे युक्तिसिद्ध उपदेशों को मानने लगे और उन का मत बढऩे लगा।
जब बहुत से राजा भूमिये उन के मत में हुए तब पोप जी भी उन की ओर झुके क्योंकि इन को जिधर गफ्फा अच्छा मिले वहीं चले जायें। झट से जैन बनने चले। जैन में भी और प्रकार की पोप-लीला बहुत है सो 11 वे समुल्लास में लिखेंगे। बहुतों ने इन का मत स्वीकार किया परन्तु कितने ही जा पर्वत,काशी,कन्नौज पश्चिम, दक्षिण देश वाले थे उन्होंने जैनों का मत स्वीकार नहीं किया था। वे जैनी वेद का अर्थ न जानकर बाहर की पोपलीला को भा्रन्ति से वेद पर मानकर वेदोंकी भी निन्दा करने लगे। उस के पठनपाठन यज्ञोपवीतादि और ब्रह्मचय्र्यादि नियमों को भी नाश किया। जहां जितने पुस्तक वेदादि के पाये नष्ट किये। आय्यों पर बहुत सी राजसत्ता चलाई,दु:ख दिया। जब उन को भय शंका न रही तब अपने मत वाले गृहस्थ और साधुओं की प्रतिष्ठा और वेदमार्गियों का अपमान और पक्षपात से दण्ड भी देने लगे। और आप सुख आराम और घमण्ड में आ फूलकर फिरने लगे। ऋषभदेव से लेके महावीर पर्यन्त अपने तीर्थंकरो की बड़ी-बड़ी मूत्र्तियाँ बना कर पूजा करने लगे अर्थात् पाषाणादि मूत्र्तिपूजा की जड़ जैनियों से प्रचलित हुई। परमेश्वर का मानना न्यून हुआ,पाषाणादि,मूर्तिपूजा में लगे। ऐसा तीन सौ वर्ष पर्यन्त आर्यावत्र्त में जैनों का राज। प्राय: वेदार्थज्ञान से शून्य हो गये थे। इस बात को अनुमान से अढाई सहस्त्र वर्ष व्यतीत होंगे।
बाईस सौ वर्ष हुए कि एक शंकरार्चाय द्रविड़देशोत्पन्न ब्रह्मण ब्रह्मचर्य से व्याकरणादि सब शास्त्रों को पढक़र सोचने लगे कि अहह। सत्य आस्तिक वेद मत का छूटना और जैन नास्तिक मत का चलना बड़ी हानि की बात हुई हैं इन को किसी प्रकार हटाना चाहिये। शंकराचाय्र्य शास्त्र तो पढ़े ही थे परन्तु जैन मत के भी पुस्तक पढ़े थे और उन की युक्ति भी बहुत प्रबल थी। उन्होंने विचारा कि इन को किस प्रकार हटावे? निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रार्थ करने से ये लोग हटेंगे। ऐसा विचार कर उज्जैन नगरी में आये। वहां उस समय सुधन्वा राजा था, जो जैनियों का ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था। वहां जाकर वेद का उपदेश करने लगे और राजा से मिल कर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढ़े हो और जैन मत को मानते हो। इसलिये आपको मैं कहता हूं कि जैनियों के पण्डितों के साथ मेरा शास्त्रार्थ कराईये। इस प्रतिज्ञा पर, जो हारे सो जीतने वाले का मत स्वीकार कर ले। और आप भी जीतने वाले का मत स्वीकार कीजिएगा।
यद्यपि सुन्ध्वा जैन मत में थे तथापि संस्कृत ग्रन्थ पढऩे से उन की बुद्धि में कुछ विद्या का प्रकाश था। इस से उन के मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी। क्योंकि जो विद्वान होता है, वह सत्याअसत्य की परीक्षा करके सत्य का ग्रहण और असत्य को छोड़ देता है। जब तक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था तक तक सन्देह में थे कि इन में कौन सा सत्य और कौन सा असत्य हैं। जब शंकराचार्य की यह बात सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रार्थ करके सत्यअसत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे। जैनियों के जैनियों के पण्डितों को दूर-दूर से बुलाकर सभा कराई।
उसमें शंकराचार्य का वेदमत और जैनियों का वेदविरूद्ध मत था अर्थात् शंकराचार्य का पक्ष वेदमत का स्थापन और जैनियों वेद का खण्डन था। शास्त्रार्थ कई दिनों तक हुआ। जैनियों का मत यह था कि सृष्टि का कत्र्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं। यह जगत् और जीव अनादि हैं। इन दिनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता। इस से विरूद्ध शंकराचर्य का मत था कि अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत् का कत्र्ता है। यह जगत् और जीव झूठा है क्योंकि उस परमेश्वर नें अपनी माया से जगत् बनाया: वही धारण और प्रलय कत्र्ता है। और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्रवत् है। परमेश्वर आप ही सब रूप होकर लीला कर रहा है।
बहुत दिन तक शास्त्रार्थ होता रहा। परन्तु अन्त में युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खण्डित और शंकराचर्य का मत अखण्डित रहा। तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजा ने वेद मत को स्वीकार कर लिया जैनमत को छोड़ दिया। पुन: बड़ा हल्ला गुल्ला हुआ और सुन्धवा कराया। परन्तु जैन का पराजय समय होने से पराजित होते गये।
पश्चात् शंकराचार्य के सर्वत्र आर्यावत्र्त देश में घुमने का प्रबन्ध सुधन्वादि राजाओं ने कर लिया और उन की रक्षा के लिये साथ में नौकर चाकर भी रख दिये। उसी समय से सब के यज्ञोपवीत होने लगे और वेदों का पठन-पाठन भी वेदों का मण्डन किया। परन्तु शंकराचार्य के समय में जैन विध्वसं अर्थात् जितनी मूर्तियां जैनियों की निकलती हैं। वे शंकराचार्य के समय में टूटी थीं और जो बिना टूटी निकलती हैं वे जैनियों ने भूमि में गाड़ दी थीं, कि तोड़ी न जायें। वे अब तक कहीं भमि में से निकलती हैं।
शंकराचार्य के पूर्व शैवमत भी थोड़ा सा प्रचरित था,उस का भी खण्डन किया। वाममार्ग का खण्डन किया। उस समय इस देश में धन बहुत था औश्र स्वदेशभक्ति भी थी। जैनियों के मन्दिर शंकराचार्य और सुधन्वा राजा ने नहीं तुड़वाये थे क्योंकि उन में वेदादि की पाठशाला करने की इच्छा थी। जब वेदमन्त का स्थापन हो चुका और विद्या प्रचार करने का विचार करते ही थे। उतने में दो जैन ऊपर से कथनमात्र वेदमत और भीतर से कट्टर जैन अर्थात् कपटमुनि थे,शंकराचार्य उन पर अति प्रसन्न थे। उन दोनों ने अवसर पाकर शंकराचार्य को ऐसी विषयुक्त वस्तु खिलाई कि उन की क्षुधा मन्द हो गई। पश्चात् शरीर में फोड़े फन्सी होकर छ: महीने के भीतर शरीर छूट गया। तब सब निरूत्साही हो गये और जो विद्या का प्रचार होने वाला था वह भी न होने पाया।
जो-जो उन्होंने शारीरीक भाष्यादि बनाये थे उन का प्रचार शुकराचार्य के शिष्य करने लगे। अर्थात् जो जैनियों के खण्डन के लिये ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या और जीव ब्रह्म की एकता कथन की थी उस का उपदेश करने लगे। दक्षिण में श्रृगेंरी,पूर्व में भूगोवर्धन,उतर में जोशी और द्वारिका में शारदामठ बांध कर शंकराचार्य के शिष्य महन्त बन और श्रीमान् होकर आनन्द करने लगे क्योंकि शंकराचार्य के पश्चात् उन के शिष्यों की बड़ी प्रतिष्ठा होने लगी। अब इसमें विचारना चाहिये कि जो जीव ब्रह्म की एकता मिथ्श शंकराचार्य का निज मत था तो वह अच्छा मत नहीं और जो जैनियों के खण्डन के लिए उस मत का स्वीकार किया हो तो कुछ अच्छा है।

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