हिसार

सुख की तरह ही दुख भी है जीवन का अभिन्न पहलू: डा. मधु बिश्नोई


आदमपुर,

हम व्यर्थ ही दुखों में रोते हैं। अपने भाग्य या ईश्वर को कोसते हैं। दुख तो प्रकृति की वह प्रक्रिया है, ईश्वर का वह वरदान है जिससे हम सचेष्ट होते हैं, जीवन की शक्तियों को उपयोग में लाते हैं और इससे सुखद और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण होता है। इसी से जीवन जीना सीखते है। अपने पराये का भेद मालुम होता है। उक्त विचार गांव आदमपुर के श्री गुरु जम्भेश्वर मंदिर में चल रही विराट श्री जाम्भाणी हरिकथा के 5वें दिन कथा वाचिका डा. मधु बिश्नोई ने श्रद्धालुओं को धर्मलाभ देते हुए कहें। डा. मधु बिश्नोई ने कहा कि सुख को हम प्यार करते हैं, किंतु दुख में रोते हैं, चिंता, शोक में डूब जाते हैं। यह हमारे एकांगी दृष्टिकोण और अज्ञान का परिणाम है। जीवन आधार पत्रिका यानि एक जगह सभी जानकारी..व्यक्तिगत विकास के साथ—साथ पारिवारिक सुरक्षा गारंटी और मासिक आमदनी भी..अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।

सुख की तरह ही दुख भी जीवन का अभिन्न पहलू है। यदि दुख न रहे, तो हम सुख से ऊब जाएंगे। सुख के मादक नशे में एक दूसरे का नाश कर लेंगे। इतना ही नहीं हम सुख का मूल्य ही नहीं समझ सकेंगे। रात्रि के अस्तित्व में ही दिन का जीवन है। रात्रि न हो तो दिन महत्त्वहीन हो जाएगा। जिस तरह रात और दिन एक ही काल के दो पहलू हैं, उसी तरह सुख-दुख भी हमारे जीवन के दो पहलू हैं। जिस तरह रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आती है, उसी तरह दुख के बाद सुख और सुख के बाद दुख का क्रम चलता ही रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि सुख की तरह ही हम दुख का भी स्वागत करें, उसमें शांत मन, स्थिर, दृढ़ रह कर अपने कर्तव्य में लगे रहें। नौकरी की तलाश है..तो जीवन आधार बिजनेस प्रबंधक बने और 3300 रुपए से लेकर 70 हजार 900 रुपए मासिक की नौकरी पाए..अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।

उन्होंने कहा कि विचारों और क्रियाओं का संतुलन जब बिगड़ जाता है तब मनुष्य का मानसिक संतुलन भी सुरक्षित नहीं रह पाता। इससे होता यह है कि जब वह भूमि पर अपनी वैचारिक परिस्थितियों को नहीं पाता, तो उसका दोष समाज के मत्थे मढकर मन ही मन एक द्वेष उत्पन्न कर लेता है। समाज का कोई दोष तो होता नहीं एवं उसको खुलकर कुछ न कह पाने के कारण मन ही मन जलता, भुनता और कुढ़ता रहता है। इस प्रकार की कुंठापूर्ण जिंदगी उसके लिए एक दुखद समस्या बन जाती है। अपनी प्यारी कल्पनाओं को पा नहीं पाता, यथार्थता से लडने की ताकत नहीं रहती और समाज का कुछ बिगाड़ नहीं पाता, ऐसी दशा में एक अभिशाप पूर्ण जीवन का बोझा ढोने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा ही नहीं रहता। इसके विपरीत जिन बुद्धिमानों की विचारधारा संतुलित है, उसके साथ कर्म का समन्वय है, वे जीवन को सार्थक बनाकर सराहनीय श्रेय प्राप्त करते हैं। जीवन में कर्म को प्रधानता देने वाले व्यक्ति योजनाएं कम बनाते हैं और काम अधिक किया करते हैं। इन्हें व्यर्थ विचारधारा को विस्तृत करने का अवकाश ही नहीं होता।
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