कर्दम ऋषि और देवहूति के घर में भगवान कपिल मुनि अवतरित हुए। कर्दम का अर्थ है इन्द्रियों का दामन। कर्दम अर्थात् जितेन्द्रिय। शरीर में सतोगुण की वृद्धि होने पर ज्ञान का उदय होता है। शुद्ध आहार, शुद्ध आचार और शुद्ध विचार में सतोगुण बढ़ता है।
कर्दम ऋषि बहुत बड़े तपस्वी थे। उनके तप से भगवान प्रसन्न हुए और कर्दम ऋषि को दर्शन दिए। कर्दम ऋषि ने कहा, भगवन् आपके दर्शन करके मैं धन्य हो गया। भगवान ने कहा हे ऋषि! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुआ हूं। वरदान मांगो। ऋषि ने कहा हे भगवन मुझे ऐसी स्त्री दिजिए जो मुझे प्रभु की ओर ले जाए। ऐसी पत्नी मुझे मिले जो मुझे संसारसागर में तैरने में सहायता करें।
स्त्री नौका है और पुरूष नाविक है, जिस प्रकार नाव व अकेला नाविक समुद्र को पार नहीं कर सकता ठीक उाी प्रकार नर और नारी के सहयोग से भव-सागर पार करने में बहुत आसानी रहती है। पुरूष ज्ञान और वैराग्य का द्योतक है और नारी भक्ति की,इस प्रकार इन तीनों का मिलन ही मुक्ति हैं।
अब प्रशन उठता है कर्दम ऋषि ने भगवान् से मुक्ति क्यों नहीं मांगी? शायद उन्होंने यह सोचकर कि हजारोंं जन्मों की काम-वासनाएं सुषुप्त रीति से मन में जमा हो गई हैं,उनको सन्तुष्ट करके तथा मनुष्य पर तीन ऋण हैं-देवऋण,मातृऋण, और पितृऋण,इन सबसे मुक्त होकर, अन्त में मुक्ति की इच्छा करनी चाहिए। यही कारण है कि हरिदर्शन पर उन्होंने पत्नी मांगी।भगवान् ने कहा, दो दिन के बाद तुम्हारे पास मनु महाराज आयेंगे और अपनी पुत्री देवहुति तुम्हें देंगे,उनसे तुम विवाह कर लेना। मैं पुत्ररूप में तुम्हारें यहां आऊंगा। ऐसा कहकर भगवान् अन्तध्र्यान हो गए।
मनु महाराज और शतरूपा देवहुति को लेकर कर्दम ऋषि के आश्रम में आए। कर्दम ने देवहुति की परीक्षा करने हेतु तीन आसन बिछा दिए और तीनों को बैठने के लिए कहा। मनु और शतरूपा तो आदेशानुसार आसनों पर बैठ गए परन्तु देवहुति खड़ी रही। कर्दम ने कहा, यह तीसरा आसन तुम्हारे लिए है बैठ जाओ। देवहुति मन में सोचने लगी,कर्दम भविष्य में मेरे पति होनेवाले हैं।
पति द्वारा बिछाए गए आसन पर बैठना पाप है यदि नहीं बठूंगी तो पति द्वारा दी गई आज्ञा का उल्लंघन करना भी पाप है और ऋषि का अपमान है। क्या करू? बुद्धि में आया से अपना दाहिना हाथ आसन पर रखा और स्वयं नीचं आसन के पास बैठ गई।
कर्दम ऋषि ने यह सब देखा और समझ गए कि देवहुति हर तरह से योग्य और विवेकशील है,उन्होंने विवाह करने से पहले देवहुति को बता दिया मेरा विवाह भोग विलास के लिए नहीं,अपितु काम का नाश करने के लिए होगा और एक पुत्र-जन्म होने के बाद मैं पुन: सन्यास धर्म अपना लूंगा। शास्त्रों में पहले पुत्र को धर्म पुत्र कहा जाता है। अन्य सभी तो कामज पुत्र है।
जितेन्द्रिय बनने के लिए विवाह करना होता है,लेकिन आज मनुष्य अपने इस महान् लक्ष्य को भूल चुका है और भोग के लिए विवाह करने लगा है। वह भोग तो नहीं भोग सका लेकिन भोग ने उसको उपयोग बना डाला। कर्दम ऋषि की प्रतिज्ञा को मान्य करके देवहुति ने स्वीकाररात्मक सिर हिलाया और कहा, मुझे भी कामान्ध पति की जरूरत नहीं थी, मेरी भी ऐसी ही इच्छा थी कि मुझे जितेन्द्रिय पति मिले।
मनु महाराज ने विधिपूर्वक कन्यादान किया,दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। बारह वर्ष तक दोनों ही निर्विकार रहे और तपस्या करते रहे। दोनों का शरीर सूखकर कांटा हो गया। एक दिन कर्दम ऋषि ने अपनी पत्नी से कहा,मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूं। कुछ वरदान मांगो। देवहुति ने कहा,हे प्रिय मेरे लिए तो यही वरदान सर्वश्रेष्ठ है कि मेरा सौभाग्य अखण्ड रहे।यह सुनकर कर्दम ने कहा-कुछ न कुछ तो मांगना ही होगा।
देवहुति ने विनीत शब्दों में कहा पतिदेव आपने कहा था कि एक पुत्र के बाद आप सन्यास ले लेंगे। यदि एक पुत्र का दान आप दे सके तो मैं अपने को धन्य समझूंगी। दोनों के मिलन से नौ कन्याओं का जन्म हुआ,लेकिन पुत्र एक भी नहीं हुआ। नौ कन्याओं का अर्थ नवधा भक्ति। दशवे में पुत्र का जन्म हुआ। स्वयं भगवान् ने कपिल मुनि के रूप में अवतार लिया।