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बहुत समय पहले की बात है नानक देव के जनेऊ संस्कार का समय आ गया था। उनके पिता ने जनेऊ संस्कार के लिए कुल पुरोहित को बुलाया। जब पुरोहित आए तो नानक देव ने उन्हें प्रणाम किया और पूछा, ‘महाराज, आप जो मुझे ये सूत का धागा पहना रहे हैं उससे क्या फायदा होगा?’ पुरोहित ने कहा, ‘सूत का धागा डालने से आपका नया जन्म हो जाएगा, आप नए हो जाएंगे। यह सवर्णों की पहचान है। इसे देख कर लोग समझ जाएंगे कि यह कोई सवर्ण व्यक्ति है न कि शूद्र। यह जानने के बाद लोग आपका सम्मान करेंगे, जैसे सवर्णों का किया जाता है।’
पुरोहित के उत्तर से नानक देव संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने पुरोहित से दो और सवाल पूछे। एक, सवर्णों का सम्मान क्यों किया जाना चाहिए? दो, अगर ये जनेऊ टूट गया तो? पुरोहित जी का जवाब था, सवर्णों का सम्मान इसलिए होना चाहिए क्योंकि वे श्रेष्ठ होते हैं। दूसरे सवाल का आसान जवाब उन्होंने यह दिया कि जनेऊ टूट गया तो बाजार से दूसरा आ जाएगा। अब नानक का चेहरा गंभीर हो गया।
उन्होंने पूछा, ‘सवर्णों को क्या ईश्वर ने श्रेष्ठ बनाया है या उन्होंने स्वयं ही खुद को श्रेष्ठ घोषित कर दिया है?’ पुरोहित इस सवाल पर निरुत्तर हो गए। नानक ने जनेऊ डालने से इंकार करते हुए कहा कि जो धागा खुद टूट जाता है, जो बाज़ार में बिकता है, उससे परमात्मा की खोज क्या होगी। उन्होंने कहा, ‘मुझे जिस जनेऊ की आवश्यकता है, उसके लिए दया की कपास, संतोष का सूत, और संयम की गांठ होनी चाहिए। यह जनेऊ न टूटता है, ना इसमें मैल लगता है। यह न जलता है, न खोता है और न ही बाजार में बिकता है।’ नानक के ऐसे वचन सुन कर पुरोहित ने उनके पिताजी से कहा, ‘यह सामान्य बालक नहीं है। यह आसाधारण बालक है, इसे जनेऊ की कोई आवश्यकता नहीं है।’
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