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शिष्य को धीरे-धीरे गुरू दिखाई पडऩा बंद हो जाता है और परमात्मा दिखाई पडऩा शुरू हो जाता हैं। शिष्यों ने गुरू की प्रंशसा में जो भी कहा है, वह गुरू की प्रंशसा में नहीं कहा है। गुरू तो झरोखा है। झरोखे के पार चांद-तारों से भरी रात,नीला आकाश,उसकी प्रशंसा में ही कहा है। लेकिन गुरू से ही दिख है,गुरू से ही झरोखा खुला है। इसलिए निमित्त-अर्थ में गुरू की प्रशंसा की है। लेकिन वस्तुत: प्रंशसा परमात्मा की है।
यही,जिनको शिष्य होने का अनुभव नहीं है,उनकी समझ में नहीं आता। अब यह कबीरदास का वर्णन समझ में नहीं आता। यह तो ऐसा लगता है जैसे परमात्मा का वर्णन हो रहा हो। जिसने कबीरदास को शिष्य-भाव से नहीं देखा है,उसे लगेगा: यह क्या बकवास है? कबीरदास,यह जुलाहा। यह धरमदास पागल हो गया है।
ठीक ही है,धरमदस पागल हो गया है, प्रेम पागल ही कर देता है। मगर धन्यभागी हैं वे , जो पागल हो जाते हैं। क्योंकि उन पागलों के लिए ही परमात्मा मिलता है। समझदार तो चुक जाते है। समझदार तो ठीकरे इकट्ठे कर लेते हैं। समझदार तो जिंदगी ऐसे गंवा देते है- रेत से जैसे कोई तेज निचोड़ते निचोड़ते जिंदगी गंवा दे और हाथ कुछ भी न लगे। समझदार तो खाली हाथ जाते कब कहा होगा धरमदास ने? यह कहा होगा,जिस दिन गुरू में ब्रह्म का दर्शन हुआ कबीरदास दिखाई पड़े थे। कबीरदास साहब दिखाई पड़े थे। आज कबीर तो झरोखा हो गए,सिर्फ साहब दिखाई पड़ रहा है।
यह परमात्मा की ही प्रशंसा है। गुरूब्राह्म लेकिन यह शिष्य की ही समझ की बात है।
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