एक बार इन्द्र इधर उधर घूम रहा था कि रास्ते में दुर्वासा ऋषि मिल गए,उन्होंने इन्द्र को पुष्पमाला अर्पण की। साधु सन्तों की दी हुई वस्तुओं को कभी इन्कार नहीं नहीं करना चाहिए तथा आदर से ग्रहण करना चाहिए। इन्द्र सम्पत्ति के अभिमान में विवेक भी खो बैठा, उसने माला ली और हाथी की सूंड पर फैंक दी। हाथी माला को पैंरो से कुचलने लगा। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना तथा पुष्पवासी लक्ष्मी का अपमान समझा और इन्द्र को शाप दे दिया, तू धन के मद से विवेक भ्रष्ट हो गया है जा तू दरिद्र हो जायेगा।
इस प्रकार लक्ष्मी- सम्पति,धन दौलत स्वर्ग का राज्य सब दैत्यों को मिल गया। सभी देवगण बड़े दु:खी हुए और परमात्मा से प्रार्थना करने लगे कि उनका राज्य उनको वापस मिले। ब्रह्माजी ने उन्हें कहा, जाओ दानवों से मित्रता करके समुद्र मन्थन करो और उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान मैं तुम्हें करवा दूँगा जिससे तुम अमर हो जाओगे। कोई भी काम करना हो तो प्रिय सज्जनों दुश्मनों को भी मित्र बना लो,नहीं तो आपके कार्य में बाधा उत्पन्न कर देंगे। दुश्मन कां खुश करना हो तो उसकी प्रशंसा कर दो, वह हर कार्य के लिए राजी हो जायेगा।
देवाताओं ने ऐसा ही किया। आपस में सबने मिलकर समुद्र मन्थन करने की योजना बनाई। कार्य प्रारम्भ हुआ। मंदराचल पर्वत को मथानी तथा वासुकी नाग को रस्सी बनाई और अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र को मथना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में हलाहल विष निकला,इसे कोई पीना नहीं चाहता। एक दूसरे को पीने के लिए कह रहे हैं,परन्तु न देवगण इसे पीना चाहते हैं और न ही दैत्य इसे पीना चाहते हैं, अन्त में सब ने यही सोचा कि इस हलाहल को वही पी सकता है जो आठ पहर, चौंसठ घड़ी परमात्मा के ध्यान में मग्र रहता हो और वह है आशुतोष भगवान शिव्। देवता और दैत्य दोनों हलाहल विष को लेकर भगवान् शिवजी के पास आए। सबने चरणों में प्रणाम किया और शिवस्तुति करने लगे।
देवाताओं के आराध्यदेव महादेव। आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हम लोग आपकी शरण में आए हैं। त्रिलोकी को भस्म करने वाले इस उग्र विष से आप हमारी रक्षा कीजिए।
सारे जगत को बाँधने औ मुक्त करने में एकमात्र आप ही समर्थ हैं इसलिए विवेकी पुरूष आपकी ही आराधना करते हैं,क्योंकि आप शरणागत की पीड़ा को नष्ट करने वाले एंव जगद्गुरू हैं।
शोर-गूल सुनकर शिव ने आँखे खोलीं। आनें का कारण पूछा तो सब ने कहा महाराज समुद्रमन्थन से जो जहर निकला है, कृपया आप इसको पी लो। सुनकर शिवजी मुस्कुराए और कहा,मैं क्यों विष पान करूं? तुम कर लो। भगवन हम मर जायेंगे। शिव ने कहा, क्या आप मुझे मारना चाहते हो? सब ने भगवन आप तो अमर हैं अविनाशी हैं, आप कैसे मर सकते हैं? शिव तो भोले ही हैं, बोले, यदि सबका कल्याण होता है तो लाओ इसे पी लेता हूँ। भगवत् सुमिरण करते हुए भगवन् शिव ने विषपान कर डाला।
इस प्रकार एक ही घुंट में शिव ने विष का प्याला समाप्त कर दिया।
भगवान् शिव ने जहर को नीचे नहीं उतारा ,कण्ठ में ही रखा। विष के प्रभाव से गला नीला पड़ गया और तभी से भगवान् का नम नीलकण्ठ पड गया।
धर्म प्रेमी सज्जनों । यह संसार समुद्र है अपने जीवन का मन्थन करो। मन को मंदराचल पर्वत बनाओ और प्रेम की डोर से उसको मथो तो ज्ञान,वैराग्य,भक्ति रूपी अमृत की प्राप्ति होगी जिसके पान से आप भी अजर अमर,अविनाशी शिव बन जाओगे। बन्धुओं हमेशा प्रिय बोलो, र्ककश बोली विष ही है, जिसको सुनते ही मनुष्य क्रोध की अग्रि में जल उठता है,इसीलिए कभी कटु मत बोलो। सदा प्रिय बोलो। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा है कि कटुसत्य भी मत बोलो। अन्धे का अन्धा कहना कटु सत्य है,अत: अन्धे काक अन्धा नहीं,सूरदास जी कहोञ मीठी वाणी से दूसरो को तो सुख मिलता ही है अपने को भी आनन्द मिलता है।
धर्म प्रमी सज्जनों। दूसरो की भलाई के लिए यदि कष्ट भी सहने पड़े,तो उसकी परवाह मत करो, परन्तु अपने सुख के लिए कभी दूसरों को कष्ट पहुंचे ऐसा कार्य मत करो। मैं कई शिवभक्तों को भांग का सेवन करते हुए देखा हैं,जो गलत हैं। यदि कोई सन्त महात्मा, या ब्रह्मण धूम्रपान करता है आदि करता है तो वह निन्दनीय हैं। ऐसे संत महात्मा वेषधारी धर्म के नाम पर कंलक है। शास्त्रों में लिखा हैं-तम्बाकू पीनेवाले को,खानेवाले को,यदि कोई दान-पुण्य करता है तो सब बेकार है,व्यर्थ हैं। इसलिए दान पुण्य भी पात्र को देने से ही फलित होता है।