बात सन 1704 की है। गुरु गोविंद सिंह सिरसा नदी के किनारे चमकौर की गढ़ी में अपने चालीस रणबांकुरे सैनिकों को लेकर मुगलों की विशाल सेना से संघर्ष कर रहे थे। उनके बड़े पुत्र अजीत सिंह भी उनके साथ मुगल सैनिकों से जूझ रहे थे। मुगलों की सेना में 10 लाख से भी ज्यादा सैनिक थे। रात के समय मुगलों की बड़ी सेना ने सिख सैनिकों को घेर लिया। लेकिन सिख हार मानने वाले नहीं थे। वे दुश्मन सैनिकों के साथ निर्भीक होकर लड़ रहे थे। गोंविद सिंह जी के पुत्र अजीत सिंह तथा उनके साथी कई दुश्मन सैनिकों को मौत के घाट उतारते हुए युद्ध भूमि में आगे बढ़ रहे थे। लेकिन दुश्मन की विशाल सेना से लड़ते-लड़ते वह शहीद हो गए।
रात का घोर अंधकार था। गुरु गोविंद सिंह अपने साथ भाई दयासिंह को लेकर युद्धस्थल पर पहुंचे। आसमान में बिजली चमकी तथा गुरुजी की दृष्टि खून से लथपथ एक शव पर पड़ी। वह शव किसी और का नहीं बल्कि गुरु गोविंद के अपने पुत्र अजीत सिंह का ही था। गुरु गोविंद सिहं के भाई दया सिंह ने यह दृश्य देखा तो उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने गुरुजी से कहा, ‘आपकी आज्ञा हो तो अपने कमरबंद से अजीत सिंह के शव को ढक दूं।’ गुरुजी ने उनसे पूछा, ‘केवल अजीत सिंह के शव को ही कमरबंद से ढकना चाहते हो, ऐसा क्यों?’ दयासिंह ने कहा, ‘गुरुजी, यह आपके लाड़ले बेटे का शव है।’
गुरुजी ने पूछा, ‘क्या वे सब मेरे पुत्र नहीं हैं, जिन्होंने मेरे एक संकेत मात्र पर बेहिचक अपने प्राणों की आहुति दे दी?’ दया सिंह इसका कोई जवाब नहीं दे सके, बस सिर झुकाए खड़े रहे। तब गुरुजी ने कहा, ‘यहां जितने भी शहीद सिख हैं, इन सबके शव ढक सकते हो तो जरूर ढक दो।’ भाई दया सिंह गुरुजी के पुत्र व शिष्यों के प्रति समान दृष्टि, प्रेम और त्याग देखकर भाव विह्वल हो गए।