जब मेला होता है, तब मन्दिर के भीतर पुजारी रहते है और नीचे दुकान लगा रक्खी है। मन्दिर में से दुकान में जाने का छिद्र रखते हैं। जो किसी का नारियल चढ़ाया वही दुकान में फेंक दिया अर्थात् इसी प्रकार एक नारियल दिन में सहस्त्र बार बिकता है। ऐसे ही सब पदार्थो को बेचते हैं।
जिस जाति का साधु हो उन से वैसा ही काम कराते है। जैसे नापित हो उस से नापित का, कुम्हार से कुम्हार का,शिल्पी से शिल्पी का, बनिये से बनिये का और शूद्र से शूद्रादि का काम लेते हैं।
अपने चेलों पर एक कर बांध रखा है। लाखों क्रोड़ो रूपये ठग के एकत्र कर लिये हैं और करते जाते हैं। जा गद्दी पर बैठता है वह गृहस्थ करता है, आभुषादि पहनता है। जहां कहीं पधरावनी होती है वहां गाकुलिये के समान गोसाईं जी, बहू जी आदि नाम से भेंट पूजा लेते हैं। अपने सत्संग और दूसरे मत वालों का कुसंगी कहते हैं। अपने सिवाय दूसरा कैसा ही उत्तम धार्मिक विद्वान् पुरूष क्यों न हो परन्तु उस का मान्य और सेवा कभी नहीं करते क्योंकि अन्य मतस्थ की सेवा करने में पाप गिनते है। प्रसिद्ध में उन के साधु स्त्रीजनों का मुख नहीं देखते परन्तु गुप्त न जाने क्या लीला होती होगी? इस की प्रसिद्ध सर्वत्र न्यून हुई है। कहीं-कहीं साधुओं की परस्त्रीगमनादि लीला प्रसिद्ध हो गई है और उन में जो-जो बड़े-बड़े हैं वे जब मरते है तब उन को गुप्त कुवे में फेंक देकर प्रसिद्ध करते हैं कि अमुक महाराज सदेह वैकुण्ठ में गये। सहजानन्द जी आके ले गये। हम ने बहुत प्रार्थना करी कि महाराज इन को न ले जाइये क्योंकि इस महात्मा के यहां रहने से अच्छा है। सहजानन्द जी ने कहा कि नहीं अब इन की बैकुण्ठ में बहुत आवश्यकता है इसलिए ले जाते हैं। हम ने अपनी आंख से सहजानन्द जी को और विमान को देखा तथा जो मरने वाले थे उन को विमान में बैठा दिया। ऊपर को ले गये और पुष्पों की वर्षा करते गये।
और जब कोई साधु बिमार होता है और उस के बचने की आशा नहीं होती तब कहता है कि मैं कल रात को बैकुण्ठ में जाऊंगा। सुना है कि उस रात में जो उस के प्राण न छूटे और मूर्छित हो गया हो तो भी कुवे में फेंक देते हैं। क्योंकि जो उस रात को नहीं फेंक दे तो झूठे पड़ें इसलिये ऐसा काम करते होंगे। ऐसे ही जब गोकुलिया गोसाईं मरता है तब उन के चेले कहते है कि गोसाईं जी लीला विस्तार कर गये।
जो इन गोसाईं, स्वामीनारायणवालों का उपदेश करने का मन्त्र हैं वह एक ही है। श्रीकृष्ण:शरण मम इसका अर्थ ऐसा करते है कि श्रीकृष्ण मेरा शरण है अर्थात् मैं श्रीकृष्ण के शरणागत हों ऐसा भी हो सकता है। ये सब जितने मत हैं वे विद्याहीन होने से ऊटपटांग शास्त्रविरूद्ध वाक्यारचना करते हैं क्योंकि उन को विद्या के नियम की जानकारी नहीं।
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