नई दिल्ली,
पिछले दो दशक में भारत की विकास दर 6 से 7 फीसदी के बीच रही है। लेकिन देश के मजदूरों को इसका पूरा लाभ नहीं मिल रहा। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ‘इंडिया वेज रिपोर्ट’ बताती है कि 1993 से 2012 तक संगठित क्षेत्र के वेतन में जैसा इजाफा देखा गया, वैसा असंगठित क्षेत्र में नहीं रहा।
लिहाजा, मजदूर वर्ग की बेचारगी आज भी वैसी ही है, जैसी 90 के दशक में हुआ करती थी। कई राज्यों में इसे प्रति व्यक्ति आय से जोड़ा जाता है लेकिन राज्यों के बीच इतना अंतर है कि कुछ सटीक नहीं कहा जा सकता। जैसे हरियाणा में दिहाड़ी 783 रुपए और गुजरात में 320 रुपए है। जबकि गुजरात कहीं से भी हरियाणा से कम संपन्न नहीं है।
सवाल है कि तब देश में ‘लिबरलाइजेशन’ और ‘फ्री मार्केट इकॉनमी’ का फायदा किसे मिला जब समाज का एक बड़ा तबका ही वंचित रहा? जाहिर है कि भारत का एक मुट्ठी भर वर्ग जो संगठित क्षेत्र का कार्मिक है, उसे वेतन सुविधाओं का भरपूर लाभ मिला और यह लाभ दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ता गया। मगर अफसोस कि हमारे मजदूर आज भी उसी दोराहे पर खड़े हैं, जहां देश कभी 90 के दशक में हुआ करता था।
एक सवाल यह भी कि रोजगार पाए लोगों में वैसे लोगों की संख्या क्या है जिन्हें एक निश्चित तनख्वाह मिलती है और वैसे कितने लोग हैं जिनकी दिहाड़ी के भी लाले पड़ते हैं? 2011-12 का एक आंकड़ा बताता है कि रोजगार प्राप्त कुल लोगों में कमोबेश 62 फीसदी लोग हैं जो ‘कैजुअल वर्कर्स’ यानि चलताऊ काम में लगे हैं। इससे साफ है कि भारत में रोजगार प्राप्त लोगों की संख्या भले बढ़ी हो, पर कैजुअल, इनफॉर्मल या सामाजिक सुरक्षा से परे मेहनत-मजूरी में ही ज्यादातर लोग आज भी खपते हैं।
अलग अलग रिपोर्ट से यह बात भी सामने आती है कि जैसा अंतर वेतनभोगी वर्ग और दिहाड़ी वर्ग में देखा जाता है, वैसा ही देश के अलग अलग राज्यों, महिला-पुरुष और पढ़े लिखे-अनपढ़ में भी देखा जाता है। इसका अर्थ है कि देश के किसी राज्य में मजदूरी काफी अच्छी तो किसी राज्य में काफी गैरत भरी है। महिलाओं की तुलना में पुरुषों की मजदूरी ज्यादा तो अनपढ़ों की अपेक्षा पढ़े लिखे मालामाल हैं। क्या शहर और क्या गांव, महिलाएं आज भी इससे अभिशप्त हैं कि पुरुषों की तुलना में उन्हें कम तनख्वाह मिलती है।
राज्यों में मजदूरी में भारी अंतर
तेज विकास दर का संबंध प्रति व्यक्ति आय से भी होता है। यूं कहें कि विकास दर बढ़ने से लोगों की आय में इजाफा होता है जिससे उनके रहन-सहन आधुनिक और सुविधासंपन्न होते जाते हैं। लेकिन इसमें एक दिक्कत ये है कि मजदूर को कितना मिला, इसे एक तीसरा पक्ष तय करता है। ये तीसरा पक्ष केंद्र या राज्य सरकारें हैं। वेतन संबंधी कायदे-कानूनों में न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान वैधानिक तो है लेकिन बाध्यकारी नहीं है। लिहाजा हर राज्य अपने अपने स्तर पर मजदूरी तय करते हैं। इससे क्या यह मानें कि जो राज्य जितना संपन्न होगा, वह मजदूरों को उतनी ही दिहाड़ी देगा?
यहां जानना जरूरी है कि 1993-94 के बाद अधिकतम और न्यूनतम मजदूरी का अंतर राज्यों में काफी देखा जाता रहा है।
उदाहरण के तौर पर हरियाणा, असम, झारखंड, जम्मू एवं कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु और गुजरात को ले सकते हैं। इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में गहरी असमानताएं हैं। हरियाणा में जहां प्रति व्यक्ति आय 1,48,485 रुपए है तो असम में 54,618 रुपए। इसका असर औसत दिहाड़ी पर भी देखा जाता है। हरियाणा में दिहाड़ी 783 रुपए तो असम में 607 रुपए है। झारखंड में प्रति व्यक्ति आय 56,733 और दिहाड़ी 543 रुपए है। जम्मू एवं कश्मीर में प्रति व्यक्ति आय 62,857 और दिहाड़ी 495 रुपए, पंजाब में प्रति व्यक्ति आय 1,14,561 और दिहाड़ी 362 रुपए है। तमिलनाडु में प्रति व्यक्ति आय 1,30,197 और मजदूरी 388 रुपए है। गुजरात में प्रति व्यक्ति आय 1,24,678 और मजदूरी 320 रुपए है।
प्रति व्यक्ति आय से परे मजदूरों की दिहाड़ी
ऊपर के आंकड़ों से स्पष्ट है कि राज्य भले ही समृद्ध हों, वहां प्रति व्यक्ति आय भले गाढ़ी हो लेकिन यह मेहनकश लोगों की मजदूरी में कनवर्ट नहीं होता। अगर ऐसा होता तो गुजरात में मजदूरी हरियाणा से इतनी कम न होती क्योंकि दोनों राज्यों की प्रति व्यक्ति आय में मामूली अंतर है। अगर प्रति व्यक्ति आय पैमाना होता तो इस लिस्ट में असम, झारखंड और जम्मू कश्मीर को सबसे नीचे होना चाहिए था क्योंकि ये गरीब प्रदेश हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। इससे साफ है कि राज्य सरकारों पर यह निर्भर करता है कि वह मजदूरों के कल्याण का कितना ख्याल रखती हैं और उन्हें कितना फायदा पहुंचाती हैं।
इस अंतर का कारण क्या
दिहाड़ी और मजदूरी में भारत के नाम एक अच्छा रिकॉर्ड है। विकासशील देशों में भारत अकेला राष्ट्र है जिसने न्यूनतम वेतन कानून (1948) लागू किया है। इस कानून का मकसद गरीबी और असमानता कम करना है लेकिन ताज्जुब की बात है कि यहां जितने प्रदेश हैं, उनसे कई गुना ज्यादा न्यूनतम वेतन की दरें हैं। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में तकरीबन 1709 अलग अलग वेतन दरें हैं।
जानकार बताते हैं कि भारत में वेतन संबंधी अगर गंभीर शोषण है तो इसके पीछे अलग अलग दरें कारण हैं। मिल मजदूर के लिए अलग तो खेतिहर मजदूर के लिए अलग, ईंट भट्टा मजदूर के लिए कुछ तो राज मिस्त्री के लिए कुछ। बिहार में अलग मजदूरी तो अरुणाचल में कुछ और। ये असमानताएं बताती हैं कि मजदूरी के स्लैब में जितने अंतर होंगे, शोषण की गंभीरता उतनी बढ़ेगी। भारत फिलहाल इसी से त्रस्त है।
रहन-सहन का खर्च और न्यूनतम मजदूरी
भारत में मजदूरी, वेतन का रिश्ता जिस दिन व्यक्ति के रहन सहन से जुड़ जाएगा, उस दिन असंगठित क्षेत्र का सुनहरा दिन हमारे सामने होगा। न्यूनतम मजदूरी या वेतन तय करते वक्त इसका कम ही ध्यान रखा जाता है कि फलां के घर में कितने सदस्य हैं, उनका मूलभूत खर्च क्या है, भोजन पानी, दवा, पहनावा ओढ़ावा आदि न्यूनतम मजदूरी से वहन हो पाएंगे या नहीं। इसका दुष्प्रभाव होता है कि कोई मजदूर रोजगार में होते हुए भी अपने रोजमर्रा का खर्च नहीं ढो पाता और कर्ज के जंजाल में फंसता जाता है। ऐसे लोगों के लिए गरीबी हटाओ अभियान महज कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
त्रुटि कहां और सुधार की गुंजाइश क्या
भारत जैसे मजदूरी प्रधान देश में तकरीबन 65 प्रतिशत लोग ही न्यूनतम वेतन कानून में निहित हैं। बाकी के 35 फीसदी लोग इससे बाहर हैं। ऐसे लोगों की दशा और भी खराब है क्योंकि मजदूरी से वंचित रहने के साथ इन्हें कानूनी सुरक्षा भी प्राप्त नहीं है। वेतन कानून वैधानिक भले हो लेकिन बाध्यकारी नहीं है। जब तक इसे बाध्यकारी नहीं बनाया जाएगा, तब तक राज्यों के माथे पर बल नहीं पड़ेंगे और उन्हें इसकी जरूरत भी शायद महसूस नहीं होगी कि ‘कॉस्ट ऑफ लिविंग’ के आधार पर मजदूरों को एक सम्मानजनक राशि दी जाए। जो राशि दो जून की रोटी के साथ बदन ढंकने के लिए दो गज कपड़ा भी दिला सके।