मौसम परिवर्तन मनुष्य जाति के लिए खतरा, अब भी नहीं चेते तो हो जाएगी बहुत देर : सहजानंद नाथ
हिसार
दिन-प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे पर्यावरणीय संतुलन तथा इससे पैदा हुए मानवता के अस्तित्व के खतरे को देखते हुए मिशन ग्रीन फाऊंडेशन के संस्थापक भारत, चीन, अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि देशों के राष्ट्राध्यक्षों को पत्र लिखकर पृथ्वी पर पर्यावरणीय आपातकाल की घोषणा करने की मांग की है। सहजानंद नाथ ने बताया कि जिस द्रुत गति से हमारी पृथ्वी का पर्यावरण सिस्टम बिगड़ रहा है उसे संभाल पाना आने वाले दिनों में हमारे वश से बाहर की बात हो जाएगी। यदि तुंरत इस संबंध में गंभीर व ठोस कदम नहीं उठाए गए तो 2050 तक धरती हमारे रहने लायक नहीं रहेगी।
सहाजनंद नाथ ने बताया कि धरती का तापमान जिस तेज गति से बढ़ रहा है और ऋतुएं व मौसम इंसान के लिए दिन-ब-दिन बेहद विपरीत परिस्थितियां पैदा कर रहे हैं इससे आने वाले कुछ ही समय में हमारे लिए धरती पर रहना मुश्किल हो जाएगा। हिन्दू धर्म में महीनों का निर्धारण ऋतुओं के अनुसार किया गया था जिसका मनुष्य के पंच तत्वों पर प्रभाव पड़ता था लेकिन अब ऋतुओं व मौसम में आत्यधिक बदलाव आ चुके हैं जो हमारे जीवन को संकट की ओर ले जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि समुद्र का स्तर बर्फ के पिघलने एवं गर्मी के कारण समुद्र में पानी का फैलाव की वजह से बढ़ता है। समुद्र का स्तर 1880 से 2020 140 सालों में अब तक 8 इंच बढ़ चुका है। अगले 80 वर्षों में सन् 2100 ई. तक 1 से 4 फुट तक बढऩे की संभावना है। पूर्व में आइस एज के दौरान अमेरिका उत्तर-पूर्व भाग 3000 फुट की बर्फ से दबा हुआ था और अब के तापमान में 7 डिग्री का ही फर्क था। इंटरगवर्नमैंटल पेनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के 1300 वैज्ञानिकों ने सन् 2100 तक तापमान में 2 से 2.50 डिग्री सेंटीग्रट बढऩे की निश्चितता की बात कही है। परमाणु युद्ध के बाद मनुष्य जाति के लिए सबसे बड़ी विभिषिका पृथ्वी के तापमान की बढ़ोतरी ही है और अगर हम इसी गति से पर्यावरण एवं अन्य संसाधनों का ह्रास करते चले गए तो 2050 तक 35 प्रतिशत धरती का उपजाऊ क्षेत्र व 55 प्रतिशत विश्व की जनता इतनी बुरी तरह से प्रभावित होगी जिसको सुधारना संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि इससे प्रतिवर्ष 20 दिनों तक इतनी गर्म लू चलेंगी जिसमें जीव जंतु का रहना संभव नहीं हो पाएगा। अफ्रीकी देशों में यही लू के थपेड़ें वर्ष में 100 दिन तक रहेंगी जिस वजह से जीवन असहनीय हो जाएगा। एशियन देशों के गरीब संसाधन कम होने के कारण जनता के पास इस गर्मी से बचने का कोई तरीका नहीं होगा। पानी की कमी की वजह से मनुष्य पशु एवं कृषि इतनी बुरी तरह प्रभावित होगी कि खरीफ गर्मी की कोई फसल अपनी लागत कभी भी पूरी नहीं कर पाएगी।
सहजानंद नाथ ने बताया कि 1880 से 2012 तक धरती का तापमान 0.85 सेंटीग्रेट बढ़ा है। समुद्र गर्म हुए हैं। समुद्र का स्तर भी पिछले एक शतक में 19 से.मी. बढ़ा है। आर्कटिक की बर्फ 1979 के बाद बहुत तेजी से घट रही है। 2065 तक समुद्र का जल स्तर 40 से 63 से.मी. बढ़ जाएगा। यह स्तर अगर मनुष्य पर्यावरण का ह्रास करना बंद भी कर दे तो भी होगा। पूरे विश्व में मनुष्य द्वारा कार्बन डाईआक्साइड का स्तर 2050 में शून्य करने के लिए हमें 2030 से पहले-पहले जो कार्बन डाईआक्साइड का स्तर 2010 को इकाई मानते हुए लिया हुआ था 45 प्रतिशत कम करना होगा। उन्होंने बताया कि प्राकृतिक संसाधनों कोयला, गैस, तेल आदि के दोहन से जहां एक ओर उनके जलने से गर्मी पैदा होती है वहीं उनके कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होने से गर्मी बढ़ी है दूसरी और भूमि में से इनके निकलने से खाली जगह में पानी का भराव हो जाता है जो कि इनके मुकाबले में गर्मी का कम सुचालक होता है इससे जमीन के अंदर भी गर्मी बढ़ रही है। धरती के भीतर की गर्मी भी बाहर आती है जिससे पूरी पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। आर्कटिक में 1978 के बाद हर 10 वर्ष में तापमान में 0.6 डिग्री सेंटीग्रेट की बढ़ोतरी हुई है।
सहाजनंद नाथ ने बताया कि नीति आयोग के अनुसार भारत में 21.23 प्रतिशत जमीन जंगलात में आती है जबकि हमारी राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार इसे कम से कम 33 प्रतिशत होना चाहिए। भारत के 60 प्रतिशत जिलों के जंगलों में हर साल आग लगती है जिनमें से 20 जिलों में आग लगने की दर उत्तर-पूर्वी भाग में सबसे ज्यादा है। तापमान के 2 डिग्री सेंटीग्रेट बढऩे से 2013 में उत्तराखंड में हुई त्रासदी हर वर्ष 4 गुणा बढ़ जाएगी।
उन्होंने बताया कि यदि हम आज पर्यावरण परिवर्तन को अभी संतुलित करना चाहें तो हमें कुल जीडीपी का 1 प्रतिशत खर्च करना होगा लेकिन अगर हम इस कार्य को 2050 में करते हैं तो जीडीपी का कुल 20 प्रतिशत खर्च होगा। आज पेट्रोलियम और कोयले को मिलने वाली कुल सब्सिडी प्रति वर्ष 5.2 ट्रिलियन डालर है जो कि पूरी दुनिया के जीडीपी की 6 प्रतिशत बनती है। अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में रहने वाले लोगों के कारण ही पूरी दुनिया का 47 प्रतिशत प्रदूषण का कुल उत्सर्जन है जबकि सीओटू उत्सर्जन के मामले में भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 2 टन है अमेरिका का 16.6 टन है और यूरोप का 16.7 टन है जबकि सऊदीअर का 18.1 टन प्रति वर्ष है।
सहजानंद ने बताया कि इसके निवारण के लिए प्रत्येक इकाई के निर्माण में होने वाले सभी प्रकार के उत्सर्जन को बेअसर करने के लिए उस इकाई के निर्माण में होने वाले कार्बन और वाटर फुटप्रिंट को मद्देनजर रखते हुए मानव निर्मित किसी भी उत्पादन का प्रभाव सुनिश्चित करना चाहिए। वहीं उपभोक्ता स्तर पर किसी वस्तु को उपभोग करने वाले पर भी यह नियम लागू होना चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति नई वस्तु लेना चाहता है तो उसका कार्बन और वाटर फुटप्रिंट सम करके ही उसे ले।
सहजानंद नाथ ने कहा कि आज पर्यावरण की समस्या हमारे सामने विकराल रूप धारण किए खड़ी है और कोई भी देश इसके प्रति गंभीर दिखाई नहीं देता जबकि भौतिकवादी प्रगति की बजाय हमें पर्यावरणीय प्रगति को प्राथमिकता देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि उनका विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों को पत्र लिखने का उद्देश्य पृथ्वी पर अघोषित आपातकाल की ओर ध्यान दिलाना है यदि हम अब भी नहीं चेते तो बहुत देर हो चुकी होगी।