उस समय कथावाचक व्यास डोगरे जी का जमाना था बनारस में। वहां का समाज उनका बहुत सम्मान करता था। वो चलते थे तो एक काफिला साथ-साथ चलता था ।
एक दिन वे दुर्गा मंदिर से दर्शन करके निकले तो एक कोने में बैठे ब्राह्मण पर दृष्टि पड़ी जो दुर्गा स्तुति पढ रहा था।
वे उस ब्राह्मण के पास पहुंचे जो कि पहनावे से ही निर्धन लग रहा था । डोगरे जी ने उसको इक्कीस रुपये दिये और बताया कि वह अशुद्ध पाठ कर रहा है। ब्राह्मण ने उनका धन्यवाद किया और सावधानी से पाठ करने की कोशिश में लग गया।
रात में डोगरे जी को जबर बुखार ने धर दबोचा। बनारस के टॉप के डाक्टर वहां पहुंच गए । भोर में सवा चार बजे उठ कर डोगरे जी बैठ गये और तुरंत दुर्गा माता मंदिर जाने की इच्छा प्रकट की ।
एक छोटी मोटी भीड़ साथ लिये डोगरे जी मंदिर पहुंचे , वही ब्राह्मण अपने ठीहे पर बैठा पाठ कर रहा था । डोगरे जी को उसने प्रणाम किया और बताया कि वह अब उनके बताये मुताबिक पाठ कर रहा है ।
वृद्ध कथावाचक ने सर इनकार में हिलाया, पंडित जी, आपको विधि बताना हमारी भूल थी। घर जाते ही तेज बुखार ने धर दबोचा । फिर भगवती दुर्गा ने स्वप्न में दर्शन दिये। वे क्रुद्ध थी, बोली कि तू अपने काम से काम रखा कर। मंदिर पर हमारा वो भक्त कितने प्रेम से पाठ करता था। तू उसके दिमाग में शुद्ध पाठ का झंझट डाल आया। अब उसका भाव लुप्त हो गया। वो रुक रुक कर सावधानीपूर्वक पढ़ रहा है। जा और कह कि जैसे पढता था, बस वैसे ही पढ़े।
इतना कहते-कहते डोगरे जी के आँसू बह निकले। रुंधे हुए गले से वे बोले, महाराज, उम्र बीत गयी, पाठ करते, माँ की झलक न दिखी। कोई पुराना पुण्य जागा था कि जिससे आपके दर्शन हुये और जिसके लिये जगत जननी को आना पड़ा।
आपको कुछ सिखाने की हमारी हैसियत नहीं है । आप जैसे पाठ करते हो, करो। जब सामने पड़ें, आशीर्वाद का हाथ इस मदांध मूढ के सर पर रख देना।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, भक्त का भाव ही प्रभु को प्रिय है! प्रभु को शुद्ध—अशुद्ध उच्चारण से कुछ लेना—देना नहीं। इसलिए ईश्वर को सदा भाव से ही भजना चाहिए।