धर्म

ओशो : गहराई में डूबकी

भगवान श्रावस्ती में विहरते थे। श्रावस्ती में पंचग्र-दायक नामक एक ब्राह्मण था। वह खेत बोने के पश्चात् फलस तैयार होने तक पंच बार भिक्षुसंघ को दान देता था। एक दिन भगवान उसके निश्चय को देखकर भिक्षाटन करने के लिए जाते समय उसके द्वार पर जाकर खड़े हो गए। उस समय ब्राह्मण घर में बैठकर द्वार की ओर पीठ करके भोजन कर रहा था। ब्राह्मणीं ने भगवान को देखा। वह ङ्क्षचतित हुई कि यदि मेरे पति ने श्रमण गौतम को देखा, तो फिर यह निश्चय ही भोजन उन्हें दे देगा और तब मुझे फिर से पकाने की झंझट करनी पड़ेगी। ऐसा सोच वह भगवान की ओर पीठ कर उन्हें अपने पति से छिपाती हुई खड़ी हो गयी,जिससे कि ब्राह्मण उन्हें देख न सके।
उस समय तक ब्राह्मण को भगवान की उपस्थिति की अंत:प्रज्ञा होने लगी और वह अपूर्व सुंगध जो भगवान को सदा घेरे रहती थी, उसके भी नासापुटों तक पहुंच गयी और उसका मकान भी एक आलौकिक दीप्ति से भरने लगा। और इधर बाह्मणी भी भगवान को दूसरी जगह जाते न देखकर हंस पड़ी।

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ब्राह्मण ने चौंककर पीछे देखा। उसे तो अपनी आंखों पर क्षणभर को भरोसा नहीं आया और उसके मुंह से निकल गया: यह क्या भगवान। फिर उसने भगवान के चरण छूं वंदना की और अवशेष भोजन देकर यह प्रश्र पूछा: हे गौतम आप अपने शिष्यों को भिक्षु कहते हैं। क्यों भिक्षु कहते हैं? भिक्षु का अर्थ क्या हैं? और कोई भिक्षु कैसे होता है?
यह प्रश्न उसके मन में उठा,क्योंकि भगवान की इस अनायास उपस्थिति के मधुर क्षण में उसके भीतर संन्यास की आकांक्षा का उदय हुआ। शायद भगवान उसके द्वार पर उस दिन इसीलिए गए भी थे। और शायद ब्राह्मणी भी अचेतन में उठे किसी भय के कारण भगवान को छिपाकर खड़ी हो गई भी। तब भगवान ने इस गाथा को कहा।

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जिसकी नाम-रूप-पंच-स्ंकध- मे ंजरा भी ममता नहीं है और जो उनके नहीं होने पर शोक नहीं करता, वही भिक्षु है, उसे ही मैं भिक्षु कहता हूं।
इसके पहले कि इस सूत्र को समझो,इस छोटी सी घटना में गहरे जाना जरूरी है। घटना सीधी-साफ है। लेकिन उतरने की कला आती हो,तो सीधी-साफ घटनाओं में भी जीवन के बड़े रहस्य छिपे मिल जाते हैं।
हीरों की खदानें भी तो कंकड़-पत्थर और मिट्टी में ही होती है- खोदना आना चाहिए। जौहरी की नजर चाहिए। तो कंकड़-पत्थर को हटाकर हीरे खोज लिए जाते हैं।
इन छोटी-छोटी घटनाओं में हीरे दबे पड़े हैं। मैं कोशिश कर रहा हूं कि तुम्हें थोड़ी जौहरी की नजर मिले। तुम इनकी पर्ते उघाडऩे लगो। जितने गहरे उतरोगे, उतनी बड़ी संपदा तुम्हें मिलने लगेगी।
श्रावस्ती में पंचग्र-दायक नामक ब्रह्मण था। वह खेत के बोने के पश्चात् फलस तैयार होने तक पांच बार भिक्षुसंघ को दान देता था। एक दिन भगवान उसके निश्चय को देखकर भिक्षाटन करने के लिए जाते समय उसके द्वार पर जाकर खड़े हो गए।
अभी ब्राह्मण को भी निश्चय का पता नहीं है। उसके अंतराल में क्या उठा हैं,अभी ब्राह्मण को भी अज्ञात है। अभी ब्राह्मण को खयाल नहीं है कि उसके भिक्षु होने का क्षण आ गया।
मनुष्य का बहुत छोटा सा मन मनुष्य का ज्ञात है। मनस्विद कहते है:जैसे बर्फ का टुकड़ा पानी में तैराओ, तो थोड़ा ऊपर रहता है,अधिक नीचे डूबा होता है। एक खंड बाहर रहता है,नौ खंड भीतर डूबे रहते हैं। ऐसा मनुष्य का मन है, एक खंड केवल चेतन हुआ है, नौ खंड अंधेरे में डूबे हैं।
तुम्हारे अंधेरे मन में क्या उठता रहता हैं,तुम्हें अभी पता चलने में कभी-कभी वर्षो लग जाते हैं। जो आज तुम्हारे मन में उठेगा, हो सकता है पहचानते-पहचानते वर्ष बीत जाएं। और अगर कभी एक बार जो तुम्हारे अचेतन में उठा हैं, तुम्हारे चेतन तक भी आ जाए, तो भी पक्का नहीं है कि तुम समझो। क्योंकि तुम्हारी नासमझी के जाल बड़े पुराने हैं। तुम कुछ का कुछ समझो। तुम कुछ की कुछ व्यख्या कर लो। तुम कुछ का कुछ अर्थ निकाल लो। क्योंकि अर्थ आएगा तुम्हारी स्मृतियों से, तुम्हारे अतीत से।,तुम्हाी स्मृतियां और तुम्हारा अतीत उसी छोटे से खंड में सीमित हैं, जो चेतन हो गया है। और यह जो नया भाव उठ रहा है, यह तुम्हारी गहराई से आ रहा है। इस गहराई का अर्थ तुम्हारी स्मृतियों से नहीं खोजा जा सकता। तुम्हारी स्मृतियों को इस गहराई का कुछ पता ही नहीं है। इस गहराई के अर्थ खोजने के लिए तो तुम्हें जहा से यह भाव उठा हैं, उसी गहराई में डूबकी लगानी पड़ेगी, तो ही अर्थ मिलेगा,नहीं तो अर्थ नहीं मिलेगा।

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कल किसी का प्रश्र था, इस संदर्भ में सार्थक ह। नेत्रकुमारी ने पूछा है कि अब संन्यास का भाव उठ रहा हैं। प्रगाढ़ता से उठ रहा है। लेकिन एक सवाल है- कि यह मेरा भावावेश तो नहीं हैं? आपने सच में मुझे पुकारा हैं? या यह केवल मेरी भावाविष्ट दशा है कि आपको सुन-सुनकर इस विचार में मोहित हो गयी हूं?
भाव उठ रहा हैं। पुराना मन कह रहा है:यह सिर्फ भावावेश है। यह असली भाव नहीं है भाव का आवेश मात्र है। यह असली भाव नहीं है। यह तो सुनने के कारण यहां के वातावरण में, इतने गैरिक वस्त्रधारी को देखकर एक आकांक्षा का उदय हुआ है। ठहरो। घर चलो। शांति से विचार करो। कुछ दिन धैर्य रखो। जल्दी क्या हैं?
घर जाकर, शांति से विचार करके करोगे क्या? यह जो भाव की तरंग उठी थी,इसको विनिष्ट कर दोगे। इसको भावावेश कहने में तुमने ही विनष्ट करना शुरू कर दिया। और मजा ऐसा है कि जब तंरग चली जायेगी, और तुम्हारे भीतर दूसरी बात उठेगी कि नहीं,संन्यास नहीं लेना है, तब तुम क्षणभर को न सोचोगे कि यह कहीं भावावेश तो नहीं।
यह आदमी का अद्भुत मन है। तब तुम न सोचोगो कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वापस घर आ गए गृहस्थों के बीच आ गए। अब गौरिक वस्त्रधारी नहीं दिखायी पड़ते, अब ध्यान करते हुए मदमस्त लोग नहीं दिखयी पड़ते,अब वह वाणी नहीं सुनाई पड़ती। अब वह हवा नहीं है , वह बाजार-और कोलाहल,और घर ,और घर-गृहस्थी की झंझटे और सब अपने ही जैसे लोग- कहीं इस प्रभाव में संन्यास न लूं, यह भावावेश तो नहीं उठ रहा है? फिर नहीं सोचोगे। फिर एकदम राजी हो जाओगे कि असली चीज हाथ आ गयी।
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