धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—225

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते है कि कोई भी जीवात्मा जब जन्म लेती है तो उसे संसार में कर्म करना ही पड़ता है। उनकी प्राकृत शक्ति की व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि प्राणी बिना कर्म किए रह ही नहीं सकता लेकिन कर्म का बंधन ऐसा है कि इससे मुक्त होना जीवात्मा के लिए कठिन है। जब कोई भी मनुष्य अपने जीवन में कर्म करता है तो उसके अच्छे या बुरे दोनों प्रकार के परिणाम हो सकते है। दूसरा इस संसार में कोई भी कर्म पूर्ण शुद्ध नहीं है। यज्ञ को सबसे उत्तम कर्म बताया गया है।

लेकिन कई बार यज्ञ की अग्नि में भी आस पास के कीट पतंग आकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते है। मनुष्य कई बार न चाहते हुए भी किसी जीव की हत्या कर देता है और इस प्रकार स्वार्थ, द्वेष, प्रेम और मोह में पड़ा हुआ मनुष्य कर्म बंधन के कारण उसके फल को भोगता हुआ ना जाने कितनी बार इस मृत्यु लोक में जन्म लेता रहता है और फिर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। भगवान् श्री कृष्ण से इससे मुक्त होने का एक रास्ता जीवात्मा को दिखाया है।

कृष्ण कहते है कि तुम जो भी कर्म करते हो उसके फल चाहे बुरे हो या अच्छे हो सब मुझे ही अर्पित कर दो। इससे ना तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा और ना ही तुम शोक को प्राप्त होओगे। अगर कोई जीवात्मा कर्म के फल को श्री कृष्ण के चरणों में अर्पित कर दे तो वह बंधन से मुक्त हो सकता है लेकिन उसके लिए मनुष्य के चित्त का एकाग्र होना ज़रूरी है। इस पूरी प्रक्रिया को श्री कृष्ण से संन्यास योग कहा है। जब कोई योग में स्थित प्राणी कर्म के शुभ और अशुभ प्रभाव से स्वयं को मुक्त करता है तो उसे योगी कहा जाता है।

कृष्ण ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि ऐसा योगी पुरुष मृत्यु के बाद हर प्रकार के बंधन से मुक्त हो जाता है। ऐसे पुरुष को अंत में श्री कृष्ण का धाम ही प्राप्त हो जाता है। इसलिए मनुष्य को प्रयास करना चाहिए कि वो कर्म बंधन से मुक्त हो जाए।

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