धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—368

किसी गांव में एक संत आए। रात में कुछ ग्रामीण उनके निकट सत्संग लाभ लेने के लिए इकट्ठा हुए। महात्मा ने सत्संग में कहा कि भगवान सबके रक्षक हैं। वही सबका भरण-पोषण करते हैं। एक श्रोता के मन में सवाल उठा, ‘भगवान सबको कैसे दाना पानी देते हैं? क्या वह आकर खिलाएंगे?’ महात्मा के कथन की सत्यता परखने के लिए वह जंगल चला गया। वहां एक पेड़ की डाली पर चढ़कर बैठ गया।

वहां से कुछ बाराती गुजर रहे थे। उन्होंने उस पेड़ के नीचे बैठकर खाने की सोची। इतने में जंगल में शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। उन्होंने खाना वहीं छोड़ दिया और वे भाग गए। वह ऊपर से भोजन को देखता रहा। उसकी प्रतिज्ञा थी कि खिलाने वाला जबरन खिलाएगा तब भी नहीं खाऊंगा। रात हो गई। कुछ चोर उस रास्ते से गुजर रहे थे। उन्होंने भोजन पड़ा देखा तो अपने भाग्य को सराहा। वे खाना शुरू करने वाले थे कि उनमें से एक ने कहा, ‘इस निर्जन वन में भोजन का पड़ा होना शंका का विषय है। कहीं कोई छिपा न हो और इसमें विष न मिला रखा हो।’ उन्होंने टॉर्च की रोशनी से ऊपर देखा तो वह आदमी बैठा दिख गया। उसे उन्होंने नीचे उतारा। चोरों ने तय किया कि पहले खाना उसे ही खिलाया जाए। विष होगा तो वही मरेगा। वह तैयार नहीं हुआ तो चोरों ने उसके मुंह में पूड़ियां घुसेड़नी शुरू कर दी।

उसका मन मान गया कि भगवान चाहे तो जबरन भी खिला सकता है। संतों के उपदेशों की सत्यता प्रमाणित हो गई। वह पूर्ण ईश्वर भक्त बन गया। अपने देह-गेह की परवाह छोड़कर भक्ति-पूजन में मग्न रहने लगा। उच्च भक्ति-भावना से उसका जीवन धन्य हो गया। वह व्यक्ति ‘मलूकदास’ के नाम से विख्यात हुआ, जिन्होंने अपने पदों में गाया, ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सब के दाता राम।’

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