धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 487

सम्राट अकबर कलाप्रेमी थे, उनके दरबार में कलाकारों को पर्याप्त सम्मान मिलता था। तानसेन जैसे महान संगीतकार अकबर के दरबार की शोभा थे। सम्राट अकबर तानसेन के संगीत को बहुत पसंद करते थे। तानसेन अपनी संगीत कला से सम्राट को खुश रखते थे। अकबर का चहेता संगीतकार होने के कारण तानसेन को थोड़ा अहंकार आ गया।

उस समय कुछ संगीत साधक ऐसे थे, जिन्होंने अपनी संगीत साधना का लक्ष्य ईश्वर को बनाया था। वे लोग संगीत के माध्यम से ईश उपासना में लीन रहते थे। इनमें अष्टछाप के कवि तथा वल्ल्भ संप्रदाय के आचार्य विठलनाथ भी थे। एक बार तानसेन की मुलाकात आचार्य विठलनाथ से हुई। आचार्य विठलनाथ को तानसेन से वार्तालाप के दौरान आभास हुआ की तानसेन के अंदर अहंकार की भावना है। आचार्य विठलनाथ के कहने पर तानसेन ने गायन प्रस्तुत किया।

विठलनाथ ने तारीफ करते हुए तानसेन को एक हजार रुपए व दो कौड़ी ईनाम के रूप में दी।तानसेन ने कौड़ियाँ देने का कारण पूछा तो विठलनाथ बोले-आप मुगल दरबार के मुख्य गायक हैं। इसलिए एक हजार रुपए का इनाम आपकी हैसियत को ध्यान में रखकर दिया है और यह दो कौड़ी मेरी व्यक्तिगत दृष्टि में आपके गायन की कीमत है।

तानसेन को बहुत बुरा लगा। तब विठलनाथ ने कृष्ण भक्त गोविंदस्वामी को गायन करने का आग्रह किया। गोविंदस्वामी ने गायन प्रस्तुत किया, जिसे सुनकर तानसेन की गलत फहमी दूर हो गई। तानसेन बोले – विठलनाथ जी महाराज! मेरे गायन की कीमत वास्तव में दो कौड़ी ही है, क्योंकि मैं सम्राट को खुश करने के लिए गता हूँ और आप ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गाते हैं। मखमल व टाट का मुकाबला भला कैसे संभव है? आपने अच्छा किया जो मेरा अहंकार तोड़ दिया।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, भौतिक उपलब्धि की चाह में किए गए कर्म से सदैव वह कर्म श्रेष्ठ होता है, जो विशुद्ध रूप से परमात्मा को समर्पित हो।

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Jeewan Aadhar Editor Desk