जनकपुर में सीता स्वयंवर के अवसर पर जब श्रीराम ने शिवधनुष तोड़ा, तो परशुराम जी प्रचंड क्रोध में भरकर पहुँचे। उन्होंने गरजते हुए कहा— “कौन है वह जिसने मेरे भगवान महादेव का धनुष भंग किया? सामने आओ!”
सब लोग सहम गए। लेकिन राम बड़े विनम्र भाव से आगे बढ़े और हाथ जोड़कर बोले—
“भगवान, यह सब मेरी शक्ति से नहीं, बल्कि महादेव की कृपा और विधि के विधान से हुआ है। इसमें किसी का अपमान नहीं।”
राम के मधुर वचनों और शांत स्वभाव ने परशुराम के हृदय का क्रोध पिघला दिया।
उन्होंने कहा— “बेटा राम, आज मैंने देखा कि असली बल तो विनम्रता और मर्यादा में है। तुम्हारे उत्तर ने मुझे जीत लिया।”
इसी कथा को एक दादाजी अपने परिवार को सुना रहे थे। घर में दो भाइयों—राहुल और मोहित—के बीच ज़मीन के बँटवारे को लेकर झगड़ा हो गया था। राहुल, परशुराम की तरह उग्र स्वभाव का था। वह कहता— “मैं बड़ा हूँ, इसलिए सबसे अच्छा हिस्सा मुझे मिलना चाहिए!”
मोहित, राम की तरह शांत और संयमी था। वह कहता— “भाई, घर की शांति ज़रूरी है। संपत्ति से बढ़कर हमारा संबंध है।”
दोनों की बहस बढ़ने लगी। तभी दादाजी ने उन्हें पास बैठाकर कहा— “बेटा, क्या तुम्हें राम–परशुराम संवाद याद है? परशुराम क्रोध और बल के प्रतीक थे, जबकि राम संयम और मर्यादा के। अंततः राम की विनम्रता ने परशुराम को भी झुका दिया। यही शिक्षा है कि घर परिवार में क्रोध और ‘मैं बड़ा हूँ’ का अहंकार नहीं चलना चाहिए। परिवार को जोड़े रखने का बल केवल धैर्य और प्रेम में है।”
राहुल का सिर झुक गया। उसने भाई से कहा— “मोहित, तू सही कह रहा है। घर अगर टूट गया तो संपत्ति का क्या मूल्य?” दोनों भाइयों ने गले मिलकर झगड़ा समाप्त किया।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, राम–परशुराम संवाद हमें आज भी यही सिखाता है कि परिवारिक जीवन में क्रोध और अहंकार से नहीं, बल्कि विनम्रता, धैर्य और प्रेम से ही संबंध टिकते और मजबूत होते हैं।