धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 672

अयोध्या नगरी में जब रामराज्य का समय आने वाला था, तभी मंथरा ने कैकेयी के मन में संदेह का बीज बो दिया। उस एक कुटिल वाणी ने पूरे राजघराने की शांति भंग कर दी और राम को वनवास जाना पड़ा।

यह कथा सिर्फ प्राचीन काल की नहीं है, आज के आधुनिक युग में भी “मंथरा” हमारे आस-पास मौजूद हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे किसी दासी के रूप में नहीं, बल्कि अलग-अलग रूपों में हमें दिखाई देती हैं।

आधुनिक मंथरा कौन हैं?

ग़लत सलाह देने वाले लोग – जो ईर्ष्या और द्वेष से भरे होते हैं और हमें अपने प्रियजनों के खिलाफ भड़काते हैं।

सोशल मीडिया की नकारात्मकता – जहाँ अफवाहें, ग़लत खबरें और भड़काऊ बातें हमारे मन को अस्थिर कर देती हैं।

कार्यालय या व्यापार में चुगली करने वाले – जो मालिक और कर्मचारी के बीच या सहकर्मियों के बीच फूट डालते हैं।

परिवार में जलन करने वाले – जो रिश्तों में दरार डालकर सुख-शांति छीन लेते हैं।

आज का उदाहरण देखिएं—

एक परिवार में दो भाई मिलकर व्यापार चला रहे थे। बड़ा भाई परिश्रमी था और छोटा भाई समझदार। उनका कारोबार खूब फल-फूल रहा था। तभी उनके बीच एक “मंथरा” आ गई—बाहर का एक मित्र।

वह धीरे-धीरे छोटे भाई के कान भरने लगा—

“भाई तुम्हारी क़द्र नहीं होती।”

“सारा श्रेय बड़ा भाई ले जाता है।”

“तुम्हारे बिना व्यापार ठप हो जाएगा।”

छोटे भाई का मन बदलने लगा। धीरे-धीरे अविश्वास बढ़ा, झगड़ा हुआ और कारोबार टूट गया। जो मित्र मंथरा बना, उसे तो कुछ हासिल न हुआ, लेकिन भाइयों का जीवन बर्बाद हो गया।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, मंथरा आज भी हमारे जीवन में मौजूद है, बस रूप बदल गया है। हमें चाहिए कि बुद्धि और विवेक से हर बात को परखें और सिर्फ सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा न करें।

रिश्तों और विश्वास की नींव इतनी मजबूत हो कि कोई भी मंथरा उसे हिला न सके। इस तरह, रामायण की मंथरा हमें आज भी चेतावनी देती है कि कानों में डाले गए विष के शब्द पूरे जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं।

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