बहुत समय पहले की बात है। हिमालय की एक गुफा में एक साधु तपस्या कर रहे थे। वर्षों से मौन व्रत में लीन, केवल प्रभु के नाम में खोए रहते।
एक दिन एक घायल बंदर उस गुफा में आ गिरा। उसका शरीर काँटों और घावों से भरा था। साधु ने अपनी आँखें खोलीं, करुणा उमड़ी और उन्होंने उस बंदर को उठा लिया।
वह रोज़ उसे जल पिलाते, जड़ी-बूटी लगाते, और उसे “संकट से मुक्त” होने की कामना करते।
दिनों बाद वह बंदर पूरी तरह स्वस्थ हो गया। अब बंदर उसी गुफा के आसपास रहने लगा।
कुछ दिनों बाद, जब साधु ध्यान में बैठे थे, तो एक भूखा शेर उस गुफा की तरफ आया। उसने गुफा के पास बंदर को देखा तो उसे खाने के झपटा। बंदर तेजी से पेड़ पर जा चढ़ा। शेर ने छलांग लगाई तो वह एक लकड़ी के ठूंठ में उलझकर गंभीर रुप से घायल हो गया।
शेर को दर्द से कहराते देख बंदर गुफा में गया। उसने साधू को ध्यान से जगाया और घायल शेर की तरफ ले गया। साधु ने शेर के जख्मों पर जड़ी—बूटी का मिश्रण कुछ दिनों तक लगाया। इससे शेर ठीक हो गया।
ठीक होने पर शेर ने बंदर से पूछा, मैं तो तुझे मारना चाहता था। इसके बाद भी तू मेरे प्राण बचाने के लिए साधु के पास क्यों गया। इस पर बंदर ने कहा साधु की संगत में रहकर मैंने शत्रु पर करुणा करना सीखा।
इस जंगल में यही साधु सभी जीवों के संकटमोचक है। “जो दूसरों के संकट को अपना मानकर हल करता है, वही सच्चा गुरु होता है।” शेर ने कहा—जंगल में आज से इनको संकटमोचक बाबा के नाम से पहचाना चाएगा।
तब साधु ने विनम्र होकर कहा— “मैं तो केवल एक दया का पात्र बना। असली संकटमोचक तो करुणा है, जो जीवों के दुख को अपना मान लेती है।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, ‘संकटमोचक बनना’ किसी पद या शक्ति से नहीं, बल्कि करुणा, सेवा और प्रेम से होता है। गुरु वही है, जो दूसरों के दर्द को अनुभव कर उन्हें प्रकाश की राह दिखाए।









