एक बार एक राजा था—वीरेंद्रसिंह। उसके राज्य में समृद्धि थी, परंतु उसका स्वभाव बड़ा उग्र था। वह जो भी कह देता, वही आदेश माना जाता। पर कई बार उसके शब्दों से लोग आहत हो जाते थे।
एक दिन राज्य में एक वृद्ध संत आए। राजा ने उनका स्वागत किया। बातचीत के दौरान संत ने कहा— “राजन, सुना है आप बहुत तेज बोलते हैं और कभी-कभी समय की कीमत नहीं समझते।”
राजा हँस पड़ा, “महाराज, मेरे पास समय की कोई कमी नहीं, और मेरे शब्द आदेश हैं। उनमें गलती कैसी?”
संत ने कुछ नहीं कहा। बस मुस्कुराते हुए बोले— “कल सुबह मुझे अपने साथ एक यात्रा पर चलना होगा, राजन। वहीं मैं आपको इसका उत्तर दूँगा।”
अगले दिन दोनों महल से निकले। रास्ते में संत ने कहा, “राजन, ज़रा इस जलती हुई दीपक की लौ को बुझा दो।” राजा ने फूँक मारी और दीपक बुझ गया।
संत बोले, “अब इसे फिर से उसी हवा से जलाओ।”
राजा ने कहा, “यह कैसे संभव है, महाराज? बुझी लौ को हवा से कौन जला सकता है?”
संत ने शांत स्वर में कहा, “राजन, शब्द और समय भी इसी दीपक की लौ जैसे हैं— एक बार गलत बोल दिया तो उसे माफ़ी की हवा से भी वापस नहीं जला सकते, और एक बार समय खो दिया तो फिर कोई साम्राज्य भी उसे लौटा नहीं सकता।”
राजा की आँखें झुक गईं। वह बोला, “महाराज, अब मैं समझ गया कि मेरी सबसे बड़ी संपत्ति न धन है, न ताज— बल्कि मेरे शब्द और मेरा समय हैं।”
संत ने आशीर्वाद दिया, “जो इन दो रत्नों की रक्षा करता है, उसके जीवन में कभी अंधेरा नहीं होता।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, शब्द और समय दो अनमोल संपत्ति है। इनका प्रयोग काफी सोच—समझ करना चाहिए।