धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 701

एक बार की बात है,एक संत अपने शिष्यों के साथ हिमालय की घाटियों में भ्रमण कर रहे थे। चारों ओर हरी-भरी वादियाँ, झरनों की कल-कल ध्वनि, और पर्वतों की शांति फैली हुई थी। शिष्य मंत्रमुग्ध होकर प्रकृति की सुंदरता देख रहे थे। तभी संत ने कहा, “बेटा, यह दृश्य केवल सुंदर नहीं है — यह जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला है। प्रकृति हर क्षण हमें आगे बढ़ने की शिक्षा देती है, बस सुनने की कला आनी चाहिए।”

शिष्य जिज्ञासु हुए। “गुरुदेव, प्रकृति हमें क्या सिखाती है?”

संत मुस्कुराए और बोले, “चलो, आज इसे अनुभव करते हैं।”

पहला पाठ: संघर्ष का साहस

थोड़ी दूर चलने पर उन्होंने देखा कि एक नन्हा पौधा कठोर पत्थर की दरार से निकलकर ऊपर बढ़ रहा है।
संत बोले, “देखो इस पौधे को। मिट्टी नहीं, पानी कम, ऊपर से धूप की तपिश, फिर भी यह जीने की राह ढूँढ ही लेता है। यही जीवन का पहला पाठ है — संघर्ष से डरना नहीं, बल्कि उससे निकलने का मार्ग बनाना।”

शिष्य ने पूछा, “गुरुदेव, अगर यह पौधा हार जाता तो?”

संत ने कहा, “तब यह मिट्टी में मिल जाता, लेकिन हारता नहीं — क्योंकि हर बीज का स्वभाव है बढ़ना। मनुष्य को भी अपने स्वभाव में ‘प्रगति’ को स्थायी रखना चाहिए।”

दूसरा पाठ: लचीलापन और विनम्रता

आगे बढ़ते हुए वे नदी के किनारे पहुँचे। नदी कभी पत्थरों से टकराती, कभी उनका चक्कर लगाती, फिर भी आगे बढ़ती जा रही थी।
संत ने कहा, “नदी हमें सिखाती है कि जीवन में लचीलापन ही शक्ति है। जो झुकना जानता है, वही आगे बढ़ता है। कठोर वृक्ष तूफ़ान में गिर जाते हैं, पर लचीली घास बच जाती है। विनम्र बनो, क्योंकि विनम्रता ही प्रगति की धारा है।”

तीसरा पाठ: नित्य कर्म का भाव

थोड़ी देर बाद सूरज की किरणें पर्वतों के पीछे से झाँकने लगी। संत बोले, “सूर्य हर दिन बिना थके, बिना रुके, अपना कर्म करता है। उसे न किसी की प्रशंसा चाहिए, न कोई अवकाश।
यही तीसरा पाठ है — कर्म में निरंतरता रखो। सफलता उन्हीं को मिलती है जो सूरज की तरह रोज़ चमकने का प्रयत्न करते हैं।”

चौथा पाठ: देने का आनंद

शाम ढलने लगी थी। हवा में पेड़ों की पत्तियाँ सरसराने लगीं। संत ने कहा, “ये वृक्ष हमें छाया, फल, और ऑक्सीजन देते हैं — बदले में कुछ नहीं माँगते। जीवन का चौथा पाठ है — देने की भावना से जीना। जब मनुष्य देने का आनंद सीख लेता है, तभी वह प्रकृति के सबसे निकट पहुँचता है।”

पाँचवाँ पाठ: धैर्य और स्थिरता

दूर पर्वत स्थिर खड़े थे — शीत, वर्षा, तूफ़ान सब झेलते हुए। संत बोले, “पर्वत कहते हैं — धैर्य रखो। जीवन में ऊँचाइयाँ एक दिन में नहीं मिलतीं। जैसे पर्वत चट्टान-चट्टान जुड़कर बनते हैं, वैसे ही सफलता भी छोटे प्रयासों से बनती है। स्थिर रहो, क्योंकि जो स्थिर है, वही अडिग रहता है।”

शिष्य अब समझ गए कि यह धरती, यह हवा, यह पानी — सब जीवन के शिक्षक हैं। उन्होंने कहा, “गुरुदेव, हम तो अब तक केवल किताबों से सीखते रहे, आज जाना कि प्रकृति भी बोलती है।”

संत ने मुस्कुराकर कहा, “हाँ बेटा, प्रकृति मौन होकर भी बहुत कुछ कहती है। जो उसकी वाणी को सुनना सीख लेता है, उसका जीवन कभी ठहरता नहीं — वह निरंतर आगे बढ़ता है, जैसे नदी सागर की ओर।”

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, प्रकृति हमें बताती है कि हर तूफ़ान के बाद इंद्रधनुष आता है। इसलिए जीवन में जो भी कठिनाई आए, उससे भागो नहीं — उससे सीखो। क्योंकि प्रकृति हर क्षण कह रही है — ‘रुको मत, बढ़ते रहो।’

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