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सत्यार्थप्रकाश के अंश—41

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जो इन वेदों से विरूद्ध ग्रन्थ उत्पन्न होते हैं वे आधुनिक होने से शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। उन का मानना निष्फल और झूठा है।
इसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर जैमिनी महर्षिपर्यप्र का मत है कि वेदविरूद्ध को न मानना किन्तु वेदानुकूल ही का आचरण करना धर्म हैं। क्यों? वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है इस से विरूद्ध जितने तन्त्र और पुराण है वेदविरूद्ध होने से झूठे हैं कि जो वेद से विरूद्ध चलते हैं उन में कही हुई मूर्तिपूजा भी अधर्मरूप है। मनुष्यों का ज्ञान जड़ की पूजा से नहीं बढ़ सकता किन्तु जो कुछ ज्ञान है वह नष्ट हो जाता है। इसलिए ज्ञानियों की सेवा,संग से ज्ञान बढ़ता है। पाषाणादि से नहीं। क्या पाषणादि मूर्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी ला सकता हैं? नहीं-नहीं,मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिस में गिरकर चकनाचूर हो जाता है। पुन: उस खाई से निकल नहीं सकता किन्तु उसी में मर जाता है। हां छोटे धार्मिक विद्वानों से लेकर परम विद्वान् योगियों के संग से सद्विद्या और सत्यभाषणादि परमेश्वर की प्राप्ति की सीढ्ीयां हैं जैसी ऊपर घर में जाने की नि:श्रेणी होती है। किन्तु मूर्ति पूजा करते-करते ज्ञानी कोई न हुआ प्रत्युत सब मूर्तिपूजक अज्ञानी रह कर मनुष्यजन्म व्यर्थ खोके बहुत से मर गये और जो अब हैं वा होंगे वे भी मनुष्यजन्म के धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्तिरूप फलों से विमुख होकर निरर्थ नष्ट हो जायेंगे। मूर्तिपूजा ब्रह्म की प्राप्ति में स्थूल लक्ष्यवत् नहीं किन्तु धार्मिक विद्वान् और सृष्टिविद्या है। इस को बढ़ता-बढ़ाता ब्रह्म को भी पाता है। और मूर्तिपूजा गुडिय़ो के खेलवत् नहीं किन्तु प्रथम अक्षरधाम सुशिक्षा का होना गुडिय़ों के खेलवत् ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है सुनिये। जब अच्छी शिक्षा और विद्या को प्राप्त होगा तब सच्चे स्वामी परमात्मा को भी प्राप्त हो जायेगा।
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