धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—714

एक समय की बात है। एक नगर में दो मित्र रहते थे — राजन और विवेक। दोनों के सपने बड़े थे, दोनों सफल होना चाहते थे, लेकिन उनके जीवन के तरीके बिल्कुल अलग थे।

राजन सुबह देर से उठता, कभी समय पर काम करता तो कभी नहीं। उसका मानना था — “ज़िंदगी मज़े के लिए है, नियमों में क्या रखा है।”

विवेक दूसरी ओर हर काम समय पर करता। वह कहता, “अनुशासन बंधन नहीं, शक्ति है।”

दोनों ने एक साथ नौकरी शुरू की। राजन अक्सर देर से ऑफिस पहुँचता, काम टालता और बहाने बनाता। विवेक रोज़ समय पर आता, योजनाबद्ध काम करता, और दूसरों की मदद भी करता।

एक साल बाद प्रमोशन की घोषणा हुई — विवेक को तरक्की मिली और राजन को नौकरी से निकाल दिया गया।

राजन दुखी होकर एक संत के पास पहुँचा और बोला, “गुरुदेव, मैं तो विवेक जितना ही बुद्धिमान हूँ। फिर उसे सुख और सम्मान क्यों मिला और मुझे केवल दुख?”

संत ने पास पड़ी एक मिट्टी की दीवार की ओर इशारा किया और कहा, “बेटा, यह दीवार हर ईंट को सही क्रम और अनुशासन में जोड़कर बनी है, तभी मजबूत है। अगर ईंटें जैसे-तैसे रखी जातीं, तो यह दीवार कल ही गिर जाती। जीवन भी ऐसा ही है — जब कर्म अनुशासन में जुड़ते हैं, तब जीवन मजबूत बनता है। जब मन बिखर जाता है, तो दुख अपने आप आ जाता है।”

राजन को बात समझ आ गई। उसने अपने जीवन में अनुशासन लाना शुरू किया — सुबह जल्दी उठना, नियमित व्यायाम, समय पर कार्य, और दूसरों के प्रति आदर।

कुछ महीनों बाद वही लोग, जो कभी उसे असफल कहते थे, अब उसके समर्पण और अनुशासन की मिसाल देने लगे। उसे फिर नौकरी मिली, इस बार पद और सम्मान दोनों पहले से बड़े थे।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, अनुशासन कोई बंधन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का मार्ग है। जैसे सूरज रोज़ समय पर उगता है, समुद्र अपनी मर्यादा नहीं लांघता — वैसे ही जो व्यक्ति अपने जीवन में अनुशासन रखता है,वह दुख से मुक्त होकर सुख, सफलता और सम्मान — तीनों प्राप्त करता है।

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