एक सूफी नमाज पढ़ रहा था और एक औरत भागी हुई निकली
उसको धक्का देती हुई, उसके कपड़े पर पैर डालती हुई। वह बड़ा नाराज हुआ! बड़ा नाराज हुआ, लेकिन नमाज में था तो बोल नहीं सका। जल्दी उसने नमाज पूरी की कि और मन में सोचा इसका पीछा करें,कैसी बदतमीज औरत, इतना भी ध्यान नहीं!
लेकिन जब वह नमाज करके उठा तो वह औरत वापिस आ रही थी।
तो उसने उसे पकड़ा। उसने कहा कि सुन बदतमीज औरत! तुझे इतना भी पता नहीं कि कोई ध्यान कर रहा है, नमाज कर रहा है, प्रार्थना कर रहा है? तो इस तरह, इस तरह सलूक करना चाहिए कि तू मुझे धक्का देती, मेरे कपड़े पर पैर रखती निकल गई?
उसने कहा—क्षमा करें, मुझे याद भी नहीं। और मैंने देखा भी नहीं। मैं अपने प्रेमी से मिलने जाती थी।
मुझे याद भी नहीं कि आप कहां बैठे थे, कहा नमाज पढ़ रहे थे, कौन नमाज पढ़ रहा था, कौन नहीं पढ़ रहा था, मुझे याद नहीं।
वर्षों बाद मेरा प्रेमी आया था, मैं उसे लेने बाहर द्वार पर गई थी।
क्षमा करें! लेकिन एक बात आपसे पूछती हूं : मैं अपने प्रेमी से मिलने गई थी। क्षणभंगुर प्रेमी, पर आप तो अपने परम परमात्मा प्रेमी से मिलने गए थे ?
आपको, मेरे पैर आपके कपड़े पर पड़ गए, मेरा धक्का लगा, वह आपको पता भी चल गया। किसने मारा वह भी…आपको समझ में आ गया! आप क्या परमात्मा से मिल रहे थे?
तब तो मेरी प्रार्थना आपसे बेहतर है। माना कि मैं किसी के शरीर के मोह में पड़ी हूं और यह मोह ठीक नहीं, लेकिन कम से कम है तो! और माना कि तुम परमात्मा के मोह में पड़े हो, मगर है कहां?
कहते हैं, उस सूफी के जीवन में क्रांति हो गई इस बात से।
उसने कहा, अब नमाज तभी पड़ेंगे जब प्रेम होगा, अन्यथा क्या सार है?
व्रत से नहीं—बोध से। व्रत से नहीं—प्रेम से। व्रत से नहीं, नियम से नहीं, किसी बाहरी अनुशासन से नहीं—अंतरभाव से!