धर्म

ओशो :जिज्ञासु का भाव

गुरजिएफ के पास जब पहली दफा ऑस्पेन्स्की गया तो गुरजिएफ ने उससे कहा, एक कागज पर लिख लाओ। तुम जो भी जानते हो, ताकि उसे मैं संभालकर रख लूं, उस संबंध में कभी चर्चा न करेंगे। क्योंकि जो तुम जानते ही हो, जानते ही हो, बात समाप्त हो गयी। ऑस्पेन्स्की को कागज दिया। ऑस्पेन्स्की बड़ा पंडित था। ठीक महाकाय जैसा पंडित था। और गुरजिएफ से मिलने के पहले एक बहुत कीमती किताब- टर्शियम आरगेनम लिख चुका था। जो कही जाती है- और मुझे भी लगता है कि है- पश्चिम के इतिहास में लिखी गयी तीन किताबों में एक महत्वपूर्ण किताब है। वह गुरजिएफ से मिलने के पहले लिख चुका था। और गुरजिएफ को तो कोई जानता भी नहीं था, एक अनजान फकीर था।
और जब गुरजिएफ के पास ऑस्पेन्स्की गया, तो एक ज्ञाता की तरह हो गया था। ऑस्पेन्स्की जगतविख्यात आदमी था। गुरजिएफ को कोई जानता नहीं था। किसी मित्र ने कहा था , गांव में, फुरसत थी, ऑस्पेन्स्की ने सोचा कि चलो मिल लें। जब मिलने गया तो गुरजिएफ कोई बीस मित्रों के साथ चुपचाप बैठा हुआ था। ऑस्पेन्सकी भी थोड़ी देर बैठा , फिर घबड़ाया। न किसी ने परिचय कराया उसका कि कौन है, न गुरजिएफ ने पूछा कि कैसे आए हो। बाकी जो बीस लोग थे, वह भी चुपचाप बैठे थे तो चुपचाप ही बैठे रहे। पांच-सात मिनट के बाद बेचैनी बहुत ऑस्पेन्स्की की बढ़ गयी। न वहां से उठ सके, न कुछ बोल सके। जीवन आधार बिजनेस सुपर धमाका…बिना लागत के 15 लाख 82 हजार रुपए का बिजनेस करने का मौका….जानने के लिए यहां क्लिक करे
आखिर हिम्मत जूटाकर उसने कोई बीस मिनट तब तो बर्दाश्त किया ,फिर उसने गुरजिएफ से कहा कि माफ करिये, यह क्या हो रहा है? आप मुझसे भी यह नहीं पूछते कि मैं कौन हूं? गुरजिएफ ने आंखे उठाकर ऑस्पेन्स्की की तरफ देखा और कहा, तुमने खुद कभी अपने से पूछा है कि मैं कौन हूं? और जग तुमने ही नहीं पूछा, तो मुझे क्यों कष्ट देते हो? या तुम्हें अगर पता हो कि तुम कौन हो, तो बोलो। तो ऑस्पेन्स्की के नीचे से जमीन खिसकती मालूम पड़ी। अब तक तो सोचा कि मैं कौन हूं। सब तरफ से सोचा, कहीं कुछ पता न चला कि मैं कौन हूं।
ो गुरजिएफ ने कहा, बेचैनी में मत पड़ो, कुछ और जानते होओ, उस संबंध में ही कहो। नहीं कुछ सूझा तो गुरजिएफ ने एक कागज उठाकर दिया और कहा, हो सकता है संकोच होता हो, पास के कमरे में चले जाओ, इस इस कागज पर लिख लाओ जो-जो जानते हो। उस संबंध में फिर हम बात नहीं करेंगे। और जो नहीं जानते हो, उस संबंध में कुछ बात करेंगे। यहां क्लिक करे—स्कूली निबंध प्रतियोगिता..विद्यार्थी और स्कूल दोनों जीतेंगे सैंकड़ों उपहार
ऑस्पेन्स्की कमरे में गया उसने देखा है, सर्द रात थी, लेकिन पसीना मेरे माथे से बहना शुरू हो गया। पहली दफा मैं पसीने-पसीने हो गया। पहली दफे मुझे पता चला कि जानता तो मैं कुछ भी नहीं हूं। यद्यपि मैंने ईश्वर के संबंध में लिखा है, आत्मा के संंबंध में लिखा है। लेकिन न तो मैं आत्मा को जानता हूं, और न ही ईश्वर को। वह सब शब्द मेरी आंखो में घुमने लगे। मेरी ही किताबें मेरे चारों तरफ चक्कर काटने लगीं। और मेरी ही किताबे मेरा मखौल उड़ाने लगीं,और मेरे ही शब्द मुझसे कहने लगे-ऑस्पेन्स्की, जानते क्या हो? जीवन आधार न्यूज पोर्टल को आवश्यकता है पत्रकारों की…यहां क्लिक करे और पूरी जानकारी ले..

और तब इसने वह कोरा कागज ही लाकर गुरजिएफ को दे दिया औ कहा, मैं बिलकुल कोरा हूंं, जानता कुछ नहीं हूं, अब जिज्ञासा लेकर उपस्थित हुआ हूं। वह जो कोरा कागज था, वह ऑसपेस्न्की की समिधा थी-वापस उसके चरणों मे रख देना। समिधा प्रतीक हैं।
इस मुल्क ने तो हजारों आस्पेंन्स्की और हजारों महाकश्यप देखें हैं। फिर उन्हें प्रतीक बना लिया था कि जब भी कोई पुरे विन्रम -भाव का अर्थ है, पूरे अज्ञान के बोध से किसी के पास सीखने जाए, तो समिधा लेकर जाए। समिध प्रतीक थी । चर्चा की जरूरत नहीं होगी। यह जो दो घंटे ऑस्पेन्स्की और गुरजिएफ के बीच व्यतीत हुए , वह व्यतीत नहीं होंगे। समिधा लेकर आया हुआ व्यक्ति कहता हुआ आ रहा है कि मैं अज्ञानी हूं, मुझे पता नहीं, मैं अपने ज्ञान से नहीं पूछूंगा, अपने अज्ञान से पूछूंगा। मैं उत्तर की जिज्ञासा लेकर आया हूं। मैं शिष्य की तरह सीखने आया हूं। मुझे सिखाने का कोई भाव नहीं है। कुछ जांच-पड़ताल नहीं करनी है। कोई आपकी परीक्षा नहीं लेनी है। मैं नहीं जानता हूं।

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