बुद्ध की मृत्यु का दिन था और आनन्द रो रहा है ,सिर पीट रहा है। औश्र बुद्ध उसे समझाते हैं कि तू क्यों व्यर्थ रो रहा है। तो आनद कहता है, व्यर्थ मैं नहीं रो रहा। बुद्ध अब नहीं होंगे, अब खो जाएंगे, अब विसर्जित हो जाएंगे, मैं न रोऊ तो क्या करूं? तो बुद्ध हंसते हैं और कहते हैं, जिसे तू सोचता है कि विसर्जित हो जाएगा, वह तो मैं था ही नहीं। जिसे तू सोचता है कि मर जाएगा, वह मैं कब था? वह मंै कभी था ही नहीं। तो जिसके संबंध में तू रो रहा है, वह मैं हूं ही नहीं। और अगर तू मेरे संबंध में रो रहा है, तो व्यर्थ रो रहा है। मैं जैसा था वैसा ही रहूंगा। उसमें कोई अंतर पडऩेवाला नहीं। नौकरी करना चाहते है, तो यहां क्लिक करे।
लेकिन यह जो बुद्ध है, जिसके संबंध में बुद्ध कह रहे हैं, यह वही बुद्ध नहीं है जिसके संबंध में आनंद रो रहा है। इन दोनों का कहीं मेल नहीं है। अगर आंनद चिंतन करे बुद्ध का, तो वह बुद्ध को छोडक़र चिंतन करेगा। उसका पता ही नहीं है। वह चिंतन करेगा उनकी मुद्राओं का, उनके बैठने-उठने का, उनकी वाणी का, उनकी आंखो का, वह तो बुद्ध नहीं है। यह तो ऐसे हुआ कि जिस मकान में बुद्ध रहते हैं, जब हम बुद्ध का चिंतन करें तो हम मकान की तस्वीर सोचने लगें। उस मकान से क्या लेना देना है।
हम जब भी चितंन करते हैं परमात्मा का, तो हम किसी रूप का चिंतन करते हैं, जिससे परमात्मा प्रगट हुआ होगा, लेकिन परमात्मा का चिंतन कर सकते हैं। वह अचिंत्य है। तो फिर हम उस तक कैसे पहूंूचे? हम सारा चिंतन छोड़ दे तो उस तक पहुंच सकते हैं।
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