धर्म

ओशो : सन्यास

मैंने सुना है कि एक सर्जन ऑपरेशन कर रहा था। अपेन्डिक्स निकाली। बड़ा कुशल कारीगर था। उसके विद्यार्थी,उसके शिष्य, उसके मित्र सब किनारे खड़े होकर देख रहे थे। उसकी कुशलता की जगत में ख्याति थी। वह जिस ढंग से निकालता था-उसकी सांसे रूकी रह गई। जिस कुशलता से,जिस कारीगरी से उसने अपेन्डिक्स निकाली। जब अपेन्डिक्स निकल गयी, उनके हाथों से बेतहाशा तालियं बज गयी। सर्जन को इतना जोश आ गया कि जोश में उसने टेबल पर पड़े हुए आदमी के टॉन्सिल भी निकाल दिये। जोश की वजह से। जैसा तुम कह देते हो न कभी,कोई संगीतज्ञ गा रहा हो, कह देते हो वन्समोर। ताली बजा दी तो वह फिर दोबारा दोहरा देता है। नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
अब क्या पता, लेकिन सर्जन के हाथ में जब तुम लेट जाते हो, छोड़ देते हो सब… यह तो उससे भी बड़ी सर्जरी है। यहां शरीर के ही काटने की बात नहीं, यहां तो मन को काटने की बात है। यहां तो मन कटेगा तो ही तुम कुछ पा सकोगे।
यहां तो तुम्हारे अंहकार को काट डालने की बात है। तुम कहते हो:तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है। निश्चित तन्मयता का तुम्हें पता है क्या अर्थ होता है? अगर तुम सत्य खोज में लगे हो तो तन्मयता का से लगने का अर्थ होगा:किसी सद्गुरू के साथ एकरूप हो जाना। अगर तुम यहां सुनने बैठे हो तो तन्मयता का अर्थ होगा कि मेरे और तुम्हारे बीच कोई तर्क और कोई विवाद न रह जाए। तुम्हारे-मेरे बीच एक स्वीकार हो। तुम्हारे -मेरे बीच नहीं गिर जाये हां का भाव उठे। वहीं सन्यास है।
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