1.मातृदेवो भव
2.पितृदेवो भव
3.अतिथि देवो भव
4. आचार्य देवो भव।
अर्थात् माता ही देव हैं इनकी सेवा और भक्ति करो,पिता के भक्त बनो, कोई अतिथि आ जाए उसे देवता समझकर सम्मान,सत्कार करो और यदि आचार्य अर्थात् गुरू घर में आ जाये तो उनका सत्कार परमात्मा समझ कर बड़े विनय सहित करो। भारतीय संस्कृति महान् है। प्रात:काल उठते ही अपने माता-पिता के चरणों में प्रणाम करो। श्रवण का ज्लवन्त उदाहरण हमारे सामने है,जिसने अपने कन्धों पर कावड़ में बिठाकर अपने अन्धे माँ बाप को तीर्थयात्रा करवाई थी।
माता-पिता की सेवा से बढक़र कोई तीर्थ नहीं,कोई धर्म नहीं,कोई तप नहीं,कोई व्रत नहीं। माता-पिता की सेवा से जो पुण्यार्जन होता है उससे किए हुए पापों का भार भी कम हो जाता है। जो रोग निवारण दवाओं से नहीं हो पाते वे कई बार दुवाओं से हो जाते हैं। कई तीर्थों में जाते हैं,तप करते हैं, व्रत रखते हैं,पैदल यात्रा करते हैं, कांवड़ चढ़ाते हैं,परन्तु घर में वृद्ध माता-पिता को पानी तक अपने हाथों से नहीं पिलाते, तो क्या भगवान उनकी प्रार्थना सुनेंगे और प्रसन्न होकर उनको वरदान देंगे? जचता,तो नहीं खैर। शास्त्रों में कई प्रकार के ऋण वर्णित किये गये हैं,जिसमें मातृ -ऋण,पितृ-ऋण,देव-ऋण,गुरू-ऋण आदि ये ऐसे ऋण हैं जिनका बदला हम जन्म जन्मांतर में भी नहीं चुका सकते।
यदि संसार में माँ-बाप दुखी हैं तो जितने तुम धर्म कर्म कर रहे हो वे सब बेकार हैं,व्यर्थ हैं,निष्फल हैं। कई बहने सुबह सुबह पीपल में पानी डालती तुलसी सींचती हैं, सूर्य भगवान को अघ्र्य देती हैं,ये सब क्रियाएं अच्छी हैं, लेकिन कब? जब सास-ससुर की सेवा भी साथ हो। यदि सासा पीने का पानी माँगे और उसकी अनसुनी करके मंदिर जाकर तुलसी पर जल चढ़ाती है तो व्यर्थ है।
इन्सान द्वारा निर्मित भगवान् की प्रतिमा की तो पूजा की जा रही है और भगवान द्वारा बनाए गए इन्सान रूपी भगवान् की उपेक्षा की जा रही है, कैसी फलीभूत हो सकती है धर्म की बगिया? इसीलिए हर गृहिणी का कर्तव्य है कि घर में वृद्ध सास-ससुर आदि सभी की सेवा तन मन से करे। बहू को याद रखना है कि आनेवाले समय में वह भी सास बनेगी।