धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—95

एक बार इन्द्र ने राजा शिवि की परीक्षा लेनी चाही। राजा की सोहरत केवल संसार में ही नहीं,देवलोक तक पहुंची। देवताओं के मन में भाव पैदा हो गया और परीक्षा लेने की ठानी। इन्द्रदेव और अग्रिदेव शरणागत रक्षक राजा शिवि की परीक्षा लेने के लिए भू—लोक पर कबूतर तथा बाज बनकर राजा के महल में पहुँच गए। कबूतर फडफ़ड़ाता हुए राजा की गोद में आकर बैठ गया और कहने लगा राजन यह बाज मुझे खाना चाहता है,आप मेरी रक्षा कीजिए। राजा ने कबूतर को बड़े प्यार से सहलाया तथा सान्त्वना देते हुए कहा घबराओं नहीं ,बाज तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इतने में ही बाज आया और कहा— ‘जीवों जीवस्य भोजनम्’,हे राजन्! एक जीव दूसरे जीव का भोजन होता है। मैं बहुत भूखा हूं..कबूतर मेरा भोजन है, कृपया मुझे दिजिए। राजा ने कहा, हे बाज! यह ठीक है कि यह तुम्हारे पंजे से निकल कर आया है, लेकिन मेरा यह नियम है कि जो मेरी शरण में आता है,उसकी मैं रक्षा करता हूं। बाज ने कहा राजन् कबूतर को बचाने से तो आपको पुण्य होगा, धर्म कार्य आप कर रहे हैं,परन्तु यदि आपने मुझे इसे खाने को नहीं दिया तो मेरे प्राण पखेरू उड़ जायेंगे। अत: आपको जीव हत्या का पाप लगेगा। राजा ने कहा, हे बाज! मैं तुम्हारी क्षुधा शान्त करने के लिए अन्य किसी का मांस दे सकता हूं,परन्तु कबूतर की रक्षा करना मेरा धर्म है। बाज ने पूछा, महाराज अन्य पक्षी का मांस क्या उसको मारे बिना ही मिल जायेगा? क्या उस पक्षी को मारने का पाप आपको नहीं लगेगा? राजा चुपचाप सुनता रहा, और सोचा कि बाज ठीक ही तो कह रहा है। बाज ने आगे कहा, हे राजन्! यदि तुम दयावन हो, शरणगतरक्षक हो, अतिथि का स्वागत करने वाले हो, तो मुझे कबूतर के बदले अपना मांस खाने को दिजिए। क्योंकि भूख से मैं इतना विक्लान्त हो चुका हूं कि मेरे प्राण ही निकल जायेंगे।

शिवि मांस देने का तैयार हो गया, तराजु मंगवायी गयी, एक पलड़े में कबूतर को बिठाया गया तथा दूसरे पलड़े में शिवि ने तलवार से काटकर अपना मांस रखना शुरू किया, परन्तु कबूतर का वजन बढ़ता गया, अंत में शिवि स्वयं पलड़े में बैठ गया और अपनी गर्दन काटने के लिए ज्योंहि तलवार उठाई,तो इन्द्र देव और अग्रिदेव अपने साक्षात् रूप में प्रकट हो गये और चरणों में नतमस्तक होकर कहने लगे—राजन्! हम तो आपकी परीक्षा लेने आए थे,आप धन्य है,आपकी सेवा धन्य हैं। यह कहकर दोनों ही देव अंर्तध्यान हो गए।

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