धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश—42

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जिस ने बारह वर्ष पर्यन्त जगन्नाथ की पूजा की थी वह विरक्त हो कर मथुरा में आया था,मुझ से मिला था। मैंने इन बातों का उत्तर पूछा था। उस ने सब बाते झूठ बताई। किन्तु विचार से निश्चय यह है-जब कलेवर बदलने का समय आता है तब नौका में चन्दन की लकड़ी ले समुद्र में डालते हैं चह समुद्र के लहरियों से किनारे लग जाती है। एस के ले सुतार लोग मुर्तियां बनाते हैं। जब रसोई बनती है तब कपाट बन्द करके रसोइयों के विना अन्य किसी को न जाने, न देखने देते हैं। भूमि पर चारों छ: और बीच में चक्राकार चूल्हें बनाते हैं। उन हण्डों के नीचे घी ,मट्टी और राख लगा छ: चूल्हों पर चावल पका, उनके तले मांज कर,उस बीच के हण्डे में उसी समय चावल डाल छ: चूल्हों के मुख लोहे के तवो से बांध कर, दर्शन करने वालों को जो कि धनाढय्य हों, बुला के दिखलाते हैं। ऊपर-ऊपर के हण्डों से चावल निकाल,पके हुए चावलों को दिखला, नीचे के कच्चे चावल निकाल दिखा के उन से कहते हैं कि कुछ हण्डे के लिए रख दो। आंख के अन्धे गांठ के पूरे रूपया अशर्फी धरते और कोई-कोई मासिक भी बांध देते हैं।
शूद्र नीच लोग मन्दिर में नैवेद्य लाते हैं। जब नवैद्य हो चुकता है तब वे शूद्र नीच लोग झूठा कर देते हैं। पश्चात् जो कोई रूपया देकर हण्डा लेवे उस के घर पहुंचाते और दी गृहस्थ और साधु सन्तों को लेके शूद्र और अन्त्यज पय्र्यन्त एक पंक्ति में बैठ झूंठा एक दूसरे का भोजन करते हैं। जब वह पंक्ति उठत है तब उन्हीं पत्तलों पर दूसरे को बैठाते जाते हैं। महा अनाचार है। और बहुतेरे मनुष्य वहाँ जाकर, उन का झूठा न खाके, अपने हाथ बना खाकर चले आते हैं, कुछ भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत से परसादी नहीं खाते। उन को भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत से कुष्ठी हैं,नित्यप्रति झूठा खाने से भी रोग नहीं छूटता।
और यह जगन्नाथपुरी में वामतार्गियों ने भैरवीचक्र बनाया है क्योंकि सुभद्रा,श्री कृष्ण और बलदेव की बहिन लगती हैं। उसी को दोनों भाईयों के बीच में स्त्री और माता के स्थान बैठाई है। जो भैरवीचक्र न होता तो यह बात कभी न होती।
और रथ के पहिये के साथ कला बनाई है। जब उन को सूधी घुमाते है घुमती हैं, तब रथ चलता है। जब मेले के बीच पहुंचता हैं तभी उस की कील को उल्टी घुमा देने से रथ खड़ा रह जाता है। पुजारी लोग पुकारते हैं दान दो, पुण्य करो,जिस से जगन्नाथ प्रसन्न होकर अपना रथ चलावें, अपना धर्म रहै। जब तक भेंट आती जाती है तब तक ऐसे ही पुकारते जाते हैं। जब आ चुकती है तब एक व्रजवासी अच्छे कपड़े दुसाला ओढ़ कर आगे खड़ा रहकर हाथ जोड़ स्तुति करता हैं, हे जगन्नाथ स्वामी आप कृपा करे रथ को चलाइये,हमारा धर्म रखो ,इत्यादि बोल के साष्टांग दण्डवत् प्रणाम क रथ पर चढ़ता है। उसी समय कील को सूध घुमा देते हैं, और जय-जय शब्द बोल ,सहस्त्रों मनुष्य रस्सा खींचते हैं,रथ चलता हैं।
जब बहुत से लोग दर्शन को जाते हैं तब इतना बड़ा मन्दिर है जिस में दिन में भी अन्धेरा रहता है और दीपक जलाना पड़ता है। उन मूर्तियों के आगे पहदे खैंच कर लगाने के पर्दे दोनों ओर रहते हैं। पण्डे पुजारी भीतर खड़े रहते हैं। जब एक ओर वाले ने पर्दे को खींचा,झट मूर्ति आड़ में आ जाती है। तब सब पण्डे पुजारी पुकारते हैं-तुम भेंट धरो, तुम्हारे पाप छूट जायेंगे, तब दार्शन होंगे। शीघ्र करो। वे बेचारे बोले मनुष्य धूत्र्तो के हाथ लूटे जाते हैं। और झट पर्दा दूसरा खैंच लेते हैं तभी दर्शन होता है। तब जय शब्द बोल के प्रसन्न होकर धक्के खाके तिरस्कृत हो चले आते हैं।
इन्द्रदमन वही है कि जिस के कुल के लोग अब तक कलकत्ते में हैं। वह धनाढय्य राजा और देवी का उपासक था। उसने लाखों रूपये लगा कर मन्दिर बनवाया था। इसलिये कि आर्यावत्र्त हैं? देव मानों तो उन्ही कारीगरों को मानों कि जिन शिल्पयों ने मन्दिर बनवाया।
राजा,पण्डा और बढ़ई उस समय नहीं मरते परन्तु वे तीनों वहां प्रधान रहते हैं। छोटों को दु:ख देते होंगे। उन्होंने सम्मति करके उसी समय बदलने के समय वे तीनों उपस्थित रहते। मूर्ति का हृदय पोल रक्ख है। उस में सोने के सम्मुट में एक सालगराम रखते हैं कि जिस को प्रतिदिन धोकर चरणामृत बनाते हैं। उस पर रात्री की शयन आर्ती में उन लोगों ने विष का तेजाब लपेट दिया होगा। उस को धोके उन तीनों को पिलाया होगा कि जिस से वे कभी मर गये होंगे। मरे तो इस प्रकार और भोजनभट्टों ने प्रसिद्ध किया होगा कि जगन्नाथ जी अपने शरीर बदलने के समय तीनों भक्तों को भी साथ ले गये।

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