काशी के एक संत उज्जैन पहुंचे। उनकी प्रशंसा सुन उज्जैन के राजा उनका आशीर्वाद लेने आए। संत ने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘सिपाही बन जाओ।’ यह बात राजा को अच्छी नहीं लगी। दूसरे दिन राज्य के प्रधान पंडित संत के पास पहुंचे। संत ने कहा, ‘अज्ञानी बन जाओ।’ पंडित नाराज होकर लौट आए। इसी तरह जब नगर सेठ आया तो संत ने आशीर्वाद दिया, ‘सेवक बन जाओ।’ संत के आशीर्वाद की चर्चा राज दरबार में हुई। सभी ने कहा कि यह संत नहीं, कोई धूर्त है। राजा ने संत को पकड़ कर लाने का आदेश दिया। संत को पकड़कर दरबार में लाया गया। राजा ने कहा, ‘तुमने आशीर्वाद के बहाने सभी लोगों का अपमान किया है, इसलिए तुम्हें दंड दिया जाएगा।’ यह सुनकर संत हंस पड़े।
राजा ने इसका कारण पूछा तो संत ने कहा, ‘इस राज दरबार में क्या सभी मूर्ख हैं? ऐसे मूर्खों से राज्य को कौन बचाएगा।’ राजा ने कहा, ‘क्या बकते हो?’ संत ने कहा, ‘जिन कारणों से आप मुझे दंड दे रहे हैं, उन्हें किसी ने समझा ही नहीं। राजा का कर्म है, राज्य की सुरक्षा करना। जनता के सुख-दुख की हर वक्त चौकसी करना। सिपाही का काम भी रक्षा करना है, इसलिए मैंने आपको कहा था कि सिपाही बन जाओ।
प्रधान पंडित ज्ञानी होता है। जिस व्यक्ति के पास ज्ञान हो, सब उसका सम्मान करते हैं जिससे वह अहंकारी हो जाता है। पर यदि वह ज्ञानी होने के अहसास से बचा रहे तो अहंकार से भी बचा रह सकता है। इसलिए मैंने पंडित को अज्ञानी बनने को कहा था। नगर सेठ धनवान होता है। उसका कर्म है गरीबों की सेवा, इसलिए मैंने उसे सेवक बनने का आशीर्वाद दिया था। अब आप ही बताइए कि मैं हंसूं या रोऊं?’ संत की बातें सुन राजदरबार में मौजूद सभी लोगों की आंखें खुल गईं। राजा ने संत से क्षमा याचना की।
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