मैंने सुना है:एक अंधा भिखारी राह पर बैठा है। रात है। और राजा और उसके कुछ साथी राह भूल गए हैं। वे शिकार करने गए थे। उस गांव से गूजर रहे हैं। कोई और तो नहीं है, वह अंधा बैठा है झाड़ के नीचे: अपना एकतारा बजा रहा है। और अंधे के पास उसका एक शिष्य बैठा है। वह उससे एकतारा सीखता है ,वह भी भिखारी है। दोनों भिखारी हैं।
राजा आया और उसने कहा: सूरदासजी। फंला-फंला गांव का रास्ता कहां से जाएगा? फिर वजीर आया और उसने कहा:अंधे। फंला-फंला गांव का रास्ता कहां से जाता हैं? अंधे ने दोनों को रास्ता बता दिया। पीछे से सिपाही आया, उसने एक रपट लगायी अंधे को- कि ऐ बूढ्ढे। रास्ता किधर से जाता हैं? उसने उसे भी रास्ता बता दिया।
जब वे तीनों चले गए, तो उस अंधे ने अपने शिष्य से कहा कि पहला बादशाह था, दूसरा वजीर, और तीसरा सिपाही। वह शिष्य पूछने लगा:लेकिन आप कैसे पहचाने? आप तो अंधे हैं उसने कहा: अंधे होने से क्या होता है। जिसने कहा सूरदासजी, वह बड़े पद पर होना चाहिए। उसे कोई चिंता नहीं अपने को दिखाने की। वह प्रतिष्ठित ही है। लेकिन जो उसके पीछे आया, उसने कहा अंधे। अभी उसे कुछ प्रतिष्ठित होना है। और जो उसके पीदे आया,वह तो बिल्कुल गया-बीता होना चाहिए। उसने एक धप्प भी मारा। रास्ता पूछ रहा है और एक धप्प भी लगाया। वह बिल्कुल गयी-बीती हालत में होना चाहिए। वह सिपाही होगा।
आदमी जब बड़े पद पर होता है, तब वह यह भी मजा ले लेता है कहने का कि पद में क्या रखा है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं:पहले तो ममता न हो। और इसका प्रमाण क्या होगा? जब ये चीजें छूट जाएं, तो शोक न हो। तभी असली बात पता चलेगी। दुख न हो। ममता नहीं थी, तो दुख हो ही नहीं सकता। ममता थी, तो ही दुख हो सकता है।
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