देश

ओशो : संबोधि

संबोधि का अर्थ होता है, तुम्हारे भीतर की आंख। और कुछ ज्यादा कठिनाई की बात नहीं है, थोड़ी सी धूल पड़ी है — सपनों की धूल। धूल भी सच नहीं। विचारों की धूल। कल्पनाओं की धूल। कामनाओं की धूल। धूल भी कुछ वास्तविक नहीं, धुआं-धुआं है। मगर उस धुएं ने तुम्हारी भीतर की आंख को छिपा लिया है। जैसे बादल आ जाएं और सूरज छिप जाए। बादल छंट जाएं और सूरज प्रकट हो जाए। बस इतना ही अर्थ है संबोधि का : बादल छंट जाएं और सूरज प्रकट हो जाए।
तुम सूरज हो। बुद्धत्व तुम्हारा स्वभाव है। मगर खूब तुमने बादल अपने चारों तरफ सजा लिए है! न मालूम कैसी-कैसी कल्पनाओं के बादल! न मालूम कैसी-कैसी कामनाओं के बादल। जिनका कोई मूल्य नहीं। जो कभी पूरे हुए नहीं। जो कभी पूरे होंगे नहीं। मगर तुम उस सबसे घिरे हो, जो नहीं है, और नहीं होगा; और उससे चूक रहे हो, जो है, और जो सदा है और सदा रहेगा!
संबोधि का अर्थ होता है : जो है, उसमें जीना; जो है, उसे देखना; जो है, उससे जुड़ जाना। जो नहीं है, उस पर पकड़ छोड़ देना।…..
और तुमने पूछा है, ‘संबोधि दिवस पर आपका संदेश क्या है?’
आनंदित होओ! आनंद बांटो! और जो आनंदित है वही आनंद बांट सकता है, स्मरण रखो। दुखी दुख ही बांट सकता है। हम वही बांट सकते है जो हम हैं। जो हम नहीं हैँ, उसे हम चाहे तो भी नहीं बांट सकते।…..
आनंदित होओ! और आनंदित होने का एक ही उपाय है — मात्र एक ही उपाय है, कभी दूसरा उपाय नहीं रहा, आज भी नहीं है, आगे भी कभी नहीं होगा — ध्यान के अतिरिक्त आनंदित होने का कोई उपाय नहीं है। धन से कोई आनंदित नहीं होता; हां, ध्यानी के हाथ में धन हो तो धन से भी आनंद झरेगा। महलों से कोई आनंदित नहीं होता; लेकिन ध्यानी अगर महल में हो तो आनंद झरेगा। ध्यानी अगर झोपड़े में हो तो भी महल हो जाता है। ध्यानी अगर नरक में हो तो भी स्वर्ग में ही होता है। ध्यानी को नरक में भेजने का कोई उपाय ही नहीं है। वह जहां है वही स्वर्ग है, क्योंकि उसके भीतर से प्रतिपल स्वर्ग आविर्भूत हो रहा है, उसके भीतर से प्रतिपल स्वर्ग की किरणें चारों तरफ झर रही है। जैसे वृक्षों में फूल लगते है, ऐसे ध्यानी में स्वर्ग लगता है।
मेरा संदेश है : ध्यान में डूबो। और ध्यान को कोई गंभीर कृत्य मत समझना। ध्यान को गंभीर समझने से बड़ी भूल हो गई है। ध्यान को हलका-फुलका समझो, खेल-खेल में लो। हसिबा खेलिबा करिबा ध्यानम्। हंसो, खेलो और ध्यान करो। हंसते खेलते ध्यान करो। उदास चेहरा बना कर, अकड़ कर, गुरु-गंभीर होकर, धार्मिक होकर मत बैठ जाना। इस तरह के मुर्दो से पृथ्वी भरी है। वैसे ही लोग बहुत उदास है, और तुम और उदासीन होकर बैठ गए। क्षमा करो। लोग वैसे ही बहुत दीन-हीन हैँ, अब और उदासीनों को यह पृथ्वी नहीं सह सकती। अब पृथ्वी को नाचते हुए, गाते हुए ध्यानी चाहिए, आल्हादित! एक ऐसा धर्म चाहिए पृथ्वी को, जिसका मूल स्वर आनंद हो, जिसका मूल स्वर उत्सव हो।…..
मेरा तो एक ही छोटा सा सूत्र है, छोटा सा संदेश है : भीतर डुबकी मारो। जितने गहरे जा सको, जाओ — अपने में! वही पाओगे जो पाने योग्य है। और उसे पाकर निश्चित ही बांट सकोगे। पृथ्वी तुम्हारे हंसी के फूलों से भर सकती है।

Related posts

21 में से 17 राज्यों में जन्म के समय सेक्स रेश्यो गिरा, गुजरात—हरियाणा में सबसे बड़ी गिरावट

Jeewan Aadhar Editor Desk

130 किलो हेरोइन बरामद, एक विदेशी युवक गिरफ्तार

NDA के अपने सांसदो ने नहीं दिए अविश्वास प्रस्ताव में सरकार के पक्ष में वोट