हिसार,
हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय किसानों की आय को दोगुना करने के लिए लगातार प्रयासरत है। इसी कड़ी में विश्वविद्यालय के जैनेटिक्स एंड प्लांट ब्रीडिंग विभाग के चारा अनुभाग द्वारा जई की किस्म एचएफओ 607 की बिजाई हेतु राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हुई है जिसे नेशनल ग्रुप मीट (रबी 2019-20) के दौरान केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, इंफाल में आयोजित फोरेज क्रॉप्स एंड यूटिलाइजेशन की बैठक में पहचाना गया। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. के.पी. सिंह ने वैज्ञानिकों की टीम को बधाई दी तथा कहा कि जई की इस किस्म को उत्तर पश्चिम क्षेत्र मुख्यत: हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खेती के लिए पहचाना गया है।
यह किस्म उत्पादन तथा पोषण की दृष्टि से उत्तम है। जई की उपरोक्त किस्म एक कटाई तथा सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त हैं। एचएफओ 607 ने हरे चारे की पैदावार 615.7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दी जो राष्ट्रीय चेक केंट (549.4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) और ओएस 6 (531.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) से क्रमश: 11.9 प्रतिशत और 17.4 प्रतिशत अधिक है। इसने उत्तर पश्चिम क्षेत्र चेक ओएल 125 (565.3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) से हरे चारे की उपज के लिए 8.8 प्रतिशत अधिक की श्रेष्ठता दिखाई। सूखे चारे की उपज के लिए इसने 131.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज के साथ राष्ट्रीय चेक केंट (115.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) और ओएस 6 (106.7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) से क्रमश: 12.98 प्रतिशत और 23.93 प्रतिशत अधिक पैदावार दी।
इसने नॉर्थ वेस्ट ज़ोन चेक ओएल 125 (107.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) की तुलना में सूखे चारे की उपज के लिए 21.77 प्रतिशत की श्रेष्ठता दिखाई। इस किस्म ने 27.6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज की पैदावार दी और यह राष्ट्रीय चेक केंट और ओएस 6 तथा जोनल चैक ओएल 125 के बराबर थी और श्रेष्ठ क्वालिफाइंग किस्म ओएल 1861 से 29.0 प्रतिशत बेहतर थी। यह पोषण की गुणवत्ता में भी अच्छी है और 9.23 प्रतिशत कच्चे प्रोटीन को दर्शाती है। इसकी इन विट्रो ड्राई मैटर डाइजेस्टिबिलिटी नेशनल चेक केंट और ओएस 6 से 5.03 प्रतिशत बेहतर है तथा जोनल चेक ओएल 125 तथा श्रेष्ठ क्वालिफाइंग किस्म ओएल 1861 से 5.43 प्रतिशत अधिक है। यह किस्म पत्ता झुलसा रोग के प्रति औसत रूप से रोधक है।
इस किस्म को डॉ. डीएस फौगाट, डॉ. योगेश जिंदल और डॉ. मिनाक्षी जाटान द्वारा विकसित किया गया है। डॉ. नवीन कुमार, डॉ. दलविंदर पाल सिंह और डॉ. जयंती टोकस ने भी इस किस्म को विकसित करने में सहयोग दिया।