कविता
कलम चढा दे आसमान पर ,
गलत चले तो खाक में मिला दे।
लिखे फैसले मिटे नहीं फिर,
यही कलम सबूत मिटा दे।
जबर जुल्म का जोर चले तो,
ये कलम फिर से राह दिखा दे,
तानाशाही जब हद से गुजरे,
तो यही कलम इंसाफ दिला दे।
जब बेईमानी सिर चढ कर बोले,
या कलम कानून बना दे।
अत्याचार को रोक बीच में,
यही कलम फांसी चढवा दे।
बडे बडे बलशाली देखे,
कलम गिरा दे कलम उठा दे,
बिना विचारे इसने बरते,
तो यही कलम ऐतबार मिटा दे।
कलम से परिवार चलते,
बिना कलम मजबूरी है।
कलम से कुछ भी बना ले,
कलम सबके लिए जरूरी है।
जगदीश श्योराण,
आजाद नगर, हिसार
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