धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से —655

कई वर्ष पहले, विंध्याचल पर्वत की तलहटी में एक छोटा-सा गाँव था। गाँववासी सरल जीवन जीते थे, परंतु वहाँ का सबसे बड़ा व्यापारी “धनपाल” बहुत अभिमानी और व्यवहार में कठोर था।

एक दिन गाँव में एक संत आकर ठहरे। वे न कोई चमत्कार दिखाते, न ही किसी से दान माँगते। बस सुबह-शाम भजन करते, गरीबों की सेवा करते और हर मिलने वाले को प्रेम से सत्संग सुनाते। गाँववासी उनकी भक्ति और ज्ञान से प्रभावित होकर रोज़ उनके चरणों में बैठते।

पर धनपाल सोचता— “ये संत लोग बस बैठे-बैठे रोटियाँ तोड़ते हैं। भला इनसे किसी को क्या लाभ?” वह केवल औपचारिकता के लिए कभी-कभार प्रणाम कर लेता, लेकिन मन में श्रद्धा नहीं रखता।

समय बीता। एक दिन व्यापारी के गोदाम में आग लग गई। उसका आधा माल जलकर खाक हो गया। उधर, उसके सबसे भरोसेमंद बैल की अचानक मृत्यु हो गई। व्यापार ठप पड़ गया और कर्ज बढ़ने लगा। अब उसके दिन दुख-दर्द में बीतने लगे। वही लोग जो पहले उसके दरवाज़े पर खड़े रहते थे, अब पीठ फेरने लगे।

निराश होकर एक रात धनपाल संत की कुटिया पर पहुँचा और रोते हुए बोला— “महाराज! सब कुछ बर्बाद हो गया। कृपा कर मुझे बचाइए। कोई चमत्कार कीजिए।”

संत ने शांत स्वर में कहा— “बेटा, चमत्कार श्रद्धा में छिपा है। नदी के किनारे खड़ा आदमी अगर नाव पर विश्वास न करे, तो वह कभी पार नहीं पहुँच सकता। वैसे ही संत तो केवल नाव हैं, पार पहुँचाने वाला विश्वास है। श्रद्धा के बिना कोई साधन सफल नहीं होता।”

संत ने उसे एक दीपक पकड़ाया और कहा— “इसे घर लेकर जाओ और रोज़ श्रद्धा से जलाना। जब तक दीपक जलता है, तब तक तुम्हारे मन से अंधकार भी दूर होगा।”

धनपाल ने दीपक लिया, पर मन में शंका थी। फिर भी उसने रोज़ उसे श्रद्धा से जलाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसके मन में शांति आने लगी। वह संत के सत्संग में बैठकर उनके उपदेश सुनने लगा। कुछ महीनों बाद उसके व्यापार में अप्रत्याशित सुधार होने लगा। जिन व्यापारिक सौदों में पहले घाटा होता था, वही अब लाभ देने लगे। कर्ज उतर गया और घर फिर से सुखी हो गया।

एक दिन धनपाल संत के चरणों में गिर पड़ा और कहा— “महाराज! पहले मैं आपको व्यर्थ समझता था। आज समझा कि श्रद्धा ही सबसे बड़ा धन है। आपने जो दीपक दिया, वह तो केवल प्रतीक था— असली दीपक तो श्रद्धा थी, जिसने मेरे जीवन को उजाला दिया।”

संत मुस्कुराए और बोले— “बेटा, संत का काम केवल दिशा दिखाना है। श्रद्धा और विश्वास ही मंज़िल तक पहुँचाते हैं। जैसे सूर्य की रोशनी सबको मिलती है, वैसे ही संतों की कृपा सब पर होती है, लेकिन जो श्रद्धा से आँख खोलता है, वही प्रकाश पाता है।”

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, श्रद्धा के बिना कोई साधना या उपदेश सफल नहीं होता। संत हमें रास्ता दिखाते हैं, चलना हमें ही पड़ता है। सच्ची श्रद्धा से अंधकार मिटता है और जीवन में प्रकाश आता है।

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