एक बार एक गाँव में एक संत पहुँचे। उनके साथ कुछ शिष्य भी थे। गाँव के लोग श्रद्धा से उनसे आशीर्वाद लेने आने लगे। वहीं एक धनी सेठ भी था, जिसने संत को देखा तो बड़ा प्रभावित हुआ।
अगले दिन सेठ एक बड़ा थाल भरकर दान लेकर आया—सोने के सिक्के, कपड़े, और बहुत-सी वस्तुएँ। उसने विनम्रता से कहा, “महाराज! कृपा करके इसे स्वीकार करें, यह मेरा सेवाभाव है।”
संत मुस्कुराए और बोले, “सेठ जी, मैं तो साधु हूँ, मेरी ज़रूरत बहुत कम है। ये सब वस्तुएँ उस पंडित को दे दो, जो मंदिर में पूजा करता है।”
सेठ ने कहा, “पर महाराज, वो तो पहले से ही सम्पन्न है, उसके पास सब कुछ है!”
संत ने शांत स्वर में कहा, “दान वहाँ नहीं देना चाहिए जहाँ कमी दिखे, बल्कि वहाँ देना चाहिए जहाँ उसका सही उपयोग हो। पंडित का हृदय ज्ञान और भक्ति से भरा है। तुम्हारा दान अगर उसके पास जाएगा, तो समाज में धर्म और विद्या का विस्तार करेगा।
पर यदि तुम दान केवल दिखावे या दया से दोगे, तो वह पुण्य नहीं, अहंकार बन जाएगा।”
सेठ यह सुनकर मौन हो गया। उसने पंडित को दान दिया और देखा कि पंडित ने उसी धन से गाँव में एक पाठशाला शुरू कर दी।
कुछ महीनों बाद वही सेठ संत के चरणों में आकर बोला, “महाराज, आज समझ आया—सच्चा दान वही है जो दूसरों के कल्याण में काम आए, न कि केवल नाम कमाने के लिए।”
संत मुस्कुराए और बोले, “दान से बड़ा कोई यज्ञ नहीं, परंतु जब तक दान में करुणा और विवेक न हो, तब तक उसका फल अधूरा ही रहता है।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, “दान का अर्थ केवल देना नहीं है, दान का अर्थ है—सही स्थान पर, सही भावना से देना।”








