हिसार

आचार्या तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन के रुप में मानव को अमृत भंडार दिया— मुनि श्री विजय कुमार

आदमपुर,
स्थानीय तेरापंथ भवन में गणाधिपति गुरुदेव तुलसी की 25वीं पुण्य तिथि के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में शासन श्री मुनि विजय कुमार जी ने श्रद्धालुओं को प्रवचन के दौरान कहा कि गणाधिपति गुरुदेव तुलसी तेरापंथ धर्म संघ के नवमें अनुशास्ता थे। 11 वर्ष की वय में उन्होंने कालू गुरु के कर कमलों से संयम स्वीकार किया। 22 वर्ष की लघुवय में वे विशाल तेरापंथ धर्म संघ के अनुशास्ता बन गये। शिष्य – शिष्याओं के सर्वांगीण निर्माण के लिए वे निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। मानव जाति के हित का चिन्तन भी सदा उनके सामने रहता था। एक धर्म संघ के आचार्य होते हुए भी वे ‘‘वसुधैव कुटुम्बकं’’ को आदर्श मानकर चलते थे। पूरी धरती को वे अपना परिवार मानते थे। उनके लिए कोई पराया नहीं था। उनके कार्यक्रम सवर्जनहिताय होते थे। उनके अवदानों की लम्बी श्रृखला है जिसकी समग्र व्याख्या असीम को सीमा में बांधने जैसा है।
अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन करके वे मानव जाति के मसीहा बन गए। बिना किसी जाति भेद व संप्रदाय भेद के लोगों ने इसे स्वीकार किया। अनेक नास्तिक व्यक्तियों ने इस सार्वभौम धर्म की बात को पसंद किया। पदयात्रा के दौरान एक बार आचार्यवर सतारा शहर में पधारे। गुरुदेव ने प्रवचन में अणुव्रत की चर्चा की। प्रवचन के बाद एक नास्तिक युवक खड़ा हुआ और बोला – आचार्य श्री! मैं किसी धर्म और किसी गुरु को नहीं मानता किंतु आपने जिस धर्म की व्याख्या की है उसको मैं स्वीकार करता हूं। लखनऊ में काॅमरेड यशपाल आचार्य तुलसी के पास आये। अणुव्रत की व्याख्या सुनकर वे बोले – आचार्य श्री धर्म का यह स्वरूप मुझे भी मंजूर है।
तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आम व्यक्ति तक उन्होंने अणुव्रत के संदेश को पहुंचाया, सभी ने इसकी उपयोगिता को स्वीकार भी किया। उनकी पदयात्राओं में हजारों – हजारों व्यक्ति अणुव्रत की चर्चा सुनकर व्यसन मुक्त बने। सब धर्मों का सार इसमें समाहित है। कोई भी धर्म इसका विरोध नहीं कर सकता। अणुव्रत की प्रासंगिकता त्रैकालिक है। अतीत में थी, आज है और भविष्य में भी रहेगी। अखबार में आए दिन पढ़ने को मिलता है कि कितनी कितनी दुर्घटनाएं और अकाल मौतें हो रही हैं, अनेक परिवार उजड़ रहे हैं, अगर अणुव्रत को जीवन में अपना लिया जाये तो निःसंदेह इन घटनाओं पर नियंत्रण हो सकता है।
आचार्य तुलसी के उपकारों की गौरव गाथा सदा गूंजती रहेगी। 83 वर्ष तक वह आलोक पुंज अपना आलोक बिखेरता रहा। आषाढ़ कृष्णा तृतीया वि. सं 2054 (23 जून, 1997) के दिन गंगाशहर (राजस्थान ) में उस महापुरुष ने अपनी स्थूल देह का त्याग कर दिया। उनका यश शरीर आज भी जीवित है और आगे भी जीवित रहेगा।
कार्यक्रम में तेरापंथी सभा के संरक्षक घीसाराम, प्रधान विनोद जैन, गुलशन, राधेश्याम, सूर्यकांत जैन, संदीप जैन, एसएन गुप्ता, सुभाष जैन, उमा, कान्ता, योगिता, वर्षा, निधि ने गीत व भाषण के द्वारा अपने आराध्य गुरु तुलसी के प्रति भावन्जलि प्रकट की। कार्यक्रम का प्रारम्भ सामूहिक जप से हुआ। शासन श्री ने तुलसी की आरती का संगान किया।

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