हिसार

उम्र है तो सब तरह के देखने पड़ेंगे हमें खेल ….

कवि कृष्णलाल काकड़ ने की जीवन में हुए बदलाव की व्याख्या

ये मौसम और उस जमाने के याद है, खोखे।
अब क्या है बाल हुए धोले, मुंह से बौखे।
ना बड़ का बडो़ला छोड़ते, ना नीम निमोली।
पीपल की पींपीं, खाते जिस पीपल पर खेले टोली।
दिवाली को दिये वास्ते तेल मांगते, देखते रंगों की होली।
हांसी तक देखी नहीं, बाद मे एनसीसी मे परेड कर आए महरौली।
केर का केरिया, ढालू, पाले मे टटोलते झड़बेरिया।
यही मुंह यही हम, चूस जाते ईख, फूस में बदल‌ देते पेरी की पेरिया।
कौई रीस नही, खाटे से कलेवा से शुरु होता सवेरिया।
मधिणा मे भी दूध मोल ना लेते, ना होती कोई डेयरियां।
नौकरी मे आए तो मिलने लोग, प्रीतम गुगन, जेपी, चेतराम चकेरिया।
के टैम आयो, चोखा भला, लोग कहवे रटेरिया।
घूम—घूम दुनिया देखी तरह तरह की बोली तरह तरह का एरिया।
अब बाहर वाले तो अपने हुए घर मे खुली दुकान धोखा।
एक मिनट मे पैरों नीचे से निकाले जमीन, बस मिल जाए मौका।
उम्र है तो सब तरह के देखने पड़ेंगे हमें खेल।
कभी ऊंट सवारी अब हवाई यात्रा, पीछे छुट्टी रेल।
गरमी बढ़ती जावे, कुलर बिजली पंखे ऐसी, हुए फेल।
अब तो लोगो को देखने जाते, उनको भी जिंदा रहने का देते सबूत।
वैसे भी क्या रखा जिंदगी में, भाई भाई से करे धोका, बजावे जूत।
हम तो फिर भी खुशनसीब, लायक संताने, नहीं बड़ों—बड़ों की जाती देखी ऊत।
अब तक ठीक गुजरी, आगे भी ठीक रहेगी हमारी नोका।
अब बातों में, पहले क्रिकेट में लगाते थे छक्का चोका।
जहां साहुकार तो दुनिया का दस्तूर, होते है चोर भी।
करते बेइमानी और बेईमानी का मचाते शोर भी।
न्याय भी होता होगा, अभी तो अंधेरा घनघोर भी।

—कवि कृष्णलाल काकड़
आदमपुर

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