धर्म

ओशो : रोने में फर्क

रोने रोने में फर्क है। दर्द दर्द में भेद है। एक तो रोना है जो दुख से निकलता है, विषाद निकलता है। और रोना है जो आह्लाद से भी निकलता है। लेकिन तुमने एक ही रोना जाना है- दुख का। कोई मर गया है, तब तुम रोए हो। घर में बच्चा पैदा हुआ तब रोए हो? अगर तुम घर में बच्चा पैदा हुआ तब रोए हो, तो तुम मेरी बात समझ सकोगे। और जो घर में बच्चा पैछा हुआ तब रोता है, उसे वह दूसरी कला भी आ जाती है कि कोई मरे तो चह हंस भी सकता है। जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
मृत्यु यहां हसने की बात है, क्योंकि मरता कोई कभी नहीं। मृत्यु से ज्यादा झूठी कोई बात नहीं । जन्म यहां रोने की बात है। फिर जीवन उतरा। फिर सुबह हुई। लेकिन रोने में आह्लाद है, उत्सव है।
तुम कभी आन्नद के आंसु रोए हो? तो फिर मेरी बात तुम्हें समझ में आ जाएगी। तुम्हारा प्रेमी तुम्हें मिला है और आंखे झर-झर रो उठीं, जैसे सावन में बादल बरसे हों। अगर वैज्ञानिक के पास दुख के आंसु ले जाओगे तो उसके रासायनिक विश£ेषण में तो एक ही तरह के होंगे, कुछ भेद न पड़ेगा। दोनों में नमक बराबर होगा और बराबर मात्रा में होगा। और दोनों में पानी होगा और बराबर मात्रा में होगा। और सब दूसरे तत्व भी बराबर मात्रा में होंगे। वैज्ञानिक भेद न बता सकेंगे कि कौन-सा आंसू सुख में गिरा और कौन सा दुख में गिरा है। यही तो बात समझने की कि कुछ ऐसा भी है जिसको विज्ञान नहीं तौल पाता। कुछ तो ऐसा भी है जो विज्ञान के तराजू के पार है। कुछ ऐसा भी है जो विज्ञान के विश£ेषण की पकड़ में नही आता।
और तुम अनुभव से जानते हो कि कभी तुम प्रेम में भी रोए हो, कभी तुम क्रोध में भी रोए हो। और कभी आन्नद में भी रोए हो। और कभी तुम दुख में भी रोए हो। और दोनों तरह के रोने में भेद है। एक में गीत होता है, एक में सिर्फ हताशा है। एक नाचता हुआ होता है। एक में पक्षाघात होता है, जैसे पैरालिसिस लग गई है। नौकरी की तलाश है..3000 रुपए से लेकर 54 हजार रुपए तक मासिक तक की नौकरी यहां आपका इंतजार कर रही है, अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
मेरा जोर नाचने-गाने पर है, क्योंकि मैंं जानता हूं :नाचने गाने में दुख अपने से आ जाएगा, मगर नाचता -गाता हुआ होगा, मरघट का नहीं होगा, मन्दिर का होगा। और अंासू भी अपने-आप सम्मिलत हो जायेंगे, मगर आंसू गीत की ही तरन्नुम होंगे, गीत के विपरीत नहीं होंगे।
इसलिए मैंने तुम से नहीं कहा कि रोते हुए जाओ, क्योंकि मैं जानता हूं:रोना तुम्हें पता है एक तरह का और तुम उसी को न समझ लो। उसी को बहुत लोग समझ कर बैठ गए है। जाओ, मन्दिर-मस्जिदों मैं बैठे लोगों को देखो। बैठे हैं, उदास, जड़, लाश की तरह। सब सूख गया है, मरूस्थल हो गया है। नहीं जीवन जीने का सहीं ढंग नहीं है। यह तो आत्महत्या है-धीमी-धीमी आत्महत्या है। मैं आत्महत्या का विरोधी हूं।
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