धर्म

ओशो : अहंकार को तृप्ति मिलती है

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अब मेरे दो-चार संन्यासी हैं जो यू. जी कृष्णमुर्ति के पास जाते हैं। वे किसलिए जाते हैं?… क्योंकि यू. जी.कृष्णमूर्ति से आमने-सामने बैठकर मित्रों जैसी बात हो सकती हैं। तो उन्होंने मुझे कहा कि बड़े मानवीय हैं। उनके अहंकार को तृप्ति मिलती है। वे चाहते हैं मुझसे भी मित्रों जैसी बातचीत हो। मुझे कुछ अड़चन नहीं है। लेकिन मैं तुम्हारे किसी काम का न रह जाऊंगा। बातचीत हो जाएगी। लेकिन अगर तुम मुझे मित्र समझ रहे हो, तो तुम मेरी सुनोगे नहीं। और तुम अगर मुझे मित्र समझ रहे हो,तो तुम सुन भी लोगे तो मानोगे नहीं।
वही तो अड़चन कृष्ण और अर्जुन के बीच गीता में खड़ी हुई। अर्जुन ने सदा उनको मित्र की तरह जाना था। वही अड़चन है। आज अचानक गुरू की तरह कैसे स्वीकार कर ले? और जो मित्र की तरह जिसे जाना है,वह आज अचानक कहने लगा,सर्व धर्मान आ मैं मुक्तिदायी,मैं मुक्तिदाता। मैं तुम्हें मोक्ष ले चलूंगा।
अर्जुन चौंका होगा,कि यह क्या हुआ कृष्ण के दिमाग को। मित्र है ,संग-साथ खेले,संग-साथ उइे, मेरे सारथी बने हैं, मित्रता के ही कारण। अर्जुन ऊपर बैठा है ,कृष्ण नीचे हैं। और आज कहते हैं मामेकं शरण ब्रज। तो अर्जुन ने कहा: अपना विराट रूप दिखलाओगे,तो मानूंगा। यह वह पुराना मित्र दिक्कत दे रहा है। पत्रकारिकता के क्षेत्र में है तो जीवन आधार न्यूज पोर्टल के साथ जुड़े और 72 हजार रुपए से लेकर 3 लाख रुपए वार्षिक पैकेज के साथ अन्य बेहतरीन स्कीम का लाभ उठाए..अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
मैं भी वर्षो तक लोगों के घरों में ठहरता रहा। लोगों से मैनें बहुत मित्रता के संबंध बनाए । लेकिन मैंने देखा, कि मेरी तरफ से तो मित्रता का संबंध ठीक है मगर उनकी तरफ से घातक हो जाता है। मेरी तरफ से तो तुम मित्र हो ही, लेकिन तुम्हारी त
तरफ से जरा देर है अभी मित्र होने में। तुम्हारी तरफ से तो अभी अभी शिष्य हो, तो किसी दिन मित्र हो सकोगे। मित्र तो तुम तभी हो सकोगे,जब तुम यह देख लो जो मैंने देखा, जब मेरी जैसी आंखे तुम्हारे पास हो। अब मेरे जैसी भाव-दशा तुम्हारी हो, अब मेरे जैसा चैतन्य तुम्हारा हो। मित्र तो तुम तब हो सकोगे- तुम्हारी तरफ से।
मेरी तरफ से तुम मित्र ही हो। मेरी तरफ से तो तुम सभी बुद्ध पुरूष हो। मेरे प्रति लेकिन तुम्हारी धारणा अगर मित्र की है, तो तुम चुक जाओगे। लेकिन अंहकार को तृप्ति मिलती है। तुम किसी के पास गए । उसने मित्रता से तुमसे बातें कीं। तुम्हारा हाथ पकड़ा। तुमसे इस तरह का व्यवहार किया। तुम्हें खूब तृप्ति मिली। तुम बड़े प्रसन्न हुए कि एक सिद्ध पुरूष और मुझको मित्र मानता हंै, तो जरूर सिद्ध पुरूष मैं भी होना चाहिए। जब एक जाग्रत पुरूष मुझको मित्र मानता है, तो मैं भी जाग्रत ही हूं।
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