हिसार,
हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई जई की एक उन्नत किस्म एच एफ ओ 427 की देश की दक्षिणी भाग में खेती के लिए पहचान की गई है।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. के.पी. सिंह ने यह जानकारी देते हुए बताया कि उत्पादन तथा पोषण की दृष्टि से यह एक बेहतर किस्म है। उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की फसल किस्म पहचान कमेटी ने जई की एच एफ ओ 427 किस्म की दक्षिणी राज्यों तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू और केरल में बिजाई के लिए विमोचन हेतु पहचान की है।
कुलपति के अनुसार कि जई की उपरोक्त किस्म एक कटाई तथा सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई के लिए बहुत उपयुक्त किस्म है। इस किस्म की हरा चारा की पैदावार 302 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है जोकि जई की राष्ट्रीय चैक किस्म कैन्ट (284.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) से 12.6 प्रतिशत तथा ओ एस 6 किस्म (284.7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) से 12.5 प्रतिशत अधिक है। इसी प्रकार एच एफ ओ 427 किस्म की सूखा चारा की पैदावार 67.4 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है जोकि राष्ट्रीय चैक किस्म कैन्ट (61.9 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) तथा ओ एस 6 किस्म (62.3 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) से क्रमश: 8.4 प्रतिशत व 8.2 प्रतिशत अधिक है। दक्षिणी जोन की जई की अत्यधिक उत्पादन देने वाली किस्म जे एच ओ 2000-4 के मुकाबले हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की एच एफ ओ 427 किस्म का हरा चारा, सूखा चारा और बीज उत्पादन क्रमश: 13.5 प्रतिशत, 18.4 प्रतिशत व 16 प्रतिशत अधिक पाए गए हैं।
प्रो. सिंह ने बताया कि पौष्टिकता की दृष्टि से भी यह एक बेहतर किस्म है। इसमें प्रोटीन की मात्रा 8.4 प्रतिशत है तथा इसमें प्रति हैक्टेयर 10.4 क्विंटल तक बीज उत्पादन की क्षमता है जोकि जई की कैन्ट और ओ एस 6 किस्मों से क्रमश: 9.9 प्रतिशत व 33.8 प्रतिशत अधिक है।
उधर, विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डॉ. एस.के. सहरावत ने बताया कि विश्वविद्यालय में जई की अब तक कुल 10 किस्में विकसित की जा चुकी हैं। इनमें से जई की ओ एस 6 किस्म की पूरे देश में जबकि ओ एस 346 तथा ओ एस 377 किस्मों की सैंट्रल जोन में खेती की जा रही है। एच एफ ओ 427 किस्म का दक्षिणी राज्यों के किसानों को लाभ होगा।
इन वैज्ञानिकों ने विकसित की जई की एच एफ ओ 427 किस्म
यहां उल्लेखनीय है कि जई की एच एफ ओ 427 किस्म विश्वविद्यालय के चारा अनुभाग के वैज्ञानिकों डॉ. डी. एस. फोगाट और डॉ. योगेश जिन्दल द्वारा विकसित की गई है। इस किस्म के विकास में डॉ. सतपाल और डॉ. जयंती टोकस का भी सहयोग रहा है।
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