अश्वघोष को वैराग्य हो गया। भोग-विलास से अरुचि और संसार से विरक्ति हो जाने के कारण उसने गृह-परित्याग कर दिया। ईश्वर-दर्शन की अभिलाषा से वह जहाँ-तहाँ भटका, पर शांति न मिली। कई दिन से अन्न के दर्शन न होने से थके हुए अश्वघोष एक खलिहान के पास पहुँचे।
एक किसान शांति व प्रसन्न मुद्रा में अपने काम में लगा था। उसे देखकर अश्वघोष ने पूछा – “मित्र! आपकी प्रसन्नता का रहस्य क्या है?!” ‘ईश्वर-दर्शन’ उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।
मुझे भी उस परमात्मा के दर्शन कराइए ? विनीत भाव से अश्वघोष ने याचना की। अच्छा कहकर किसान ने थोड़े चावल निकाले। उन्हें पकाया, दो भाग किए, एक स्वयं अपने लिए, दूसरा अश्वघोष के लिए। दोनों ने चावल खाए, खाकर किसान अपने काम में लग गया। कई दिन का थका होने के कारण अश्वघोष सो गया।
प्रचंड भूख में भोजन और कई दिन के श्रम के कारण गहरी नींद आ गई। और जब वह सोकर उठा तो उस दिन जैसी शांति, हल्का-फुल्का, उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
किसान जा चुका था और अब अश्वघोष का क्षणिक वैराग्य भी मिट गया था। धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, अनासक्त कर्म ही ईश्वर- दर्शन का सच्चा मार्ग है।